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प्रकाशकीय
प्राकृत भाषा की अपनी स्वाभाविक मधुरिमा के साथ शोल और अश्लील की मर्यादा से ऊपर उठकर यथार्थं लोक जीवन का सहज चित्रण गाथासप्तशती की अपनी विशिष्टता है और यही कारण है कि प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत साहित्य के कुछ शीर्षस्थ ग्रन्थों में अपना स्थान रखता है । वास्तव में श्रृंगार की अभिव्यक्ति के माध्यम से लोकजीवन के यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में इस ग्रन्थ की कोई तुलना नहीं है । प्राकृत काव्य ग्रन्थों की यह विशिष्टता होती है कि वे अकृतिम रूप से जितने सौष्ठव के साथ यथार्थ जीवन को सहज अभिव्यक्ति दे देते हैं, वैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्यं संस्कृत काव्य साहित्य में नहीं पायी जाती । संस्कृत काव्य साहित्य में कवि के द्वारा अपने वैदुष्य के प्रकटन की भावना के कारण जो कुछ दुरूहता एवं कृत्रिमता आ जाती है उससे प्राकृत साहित्य प्रायः मुक्त रहता है और यही कारण है कि वह सीधा पाठक के हृदय को संस्पर्श करता है । कुछ लोगों को यह आपत्ति हो सकती है कि 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ' जैसी मूल्यनिष्ठ संस्था के लिये इस प्रकार के काम प्रधान साहित्य का प्रकाशन उचित नहीं है किन्तु इसके प्रकाशन में हमारा जो उद्देश्य है वह महाराष्ट्री के इस प्राचीनतम महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को प्राकृत भाषा की प्रकृति के अनुरूप एक मर्यादा में प्रस्तुत करना है । क्योंकि अभी तक 'गाथासप्तशती' की जो अनेक व्याख्याएँ प्रकाशित हैं, उनमें उसके अश्लोल पक्ष को इतना अधिक उभारा गया है कि उसके काव्य सौन्दर्य पर स्पष्टतः आघात हुआ है । इसी दृष्टि से हमने उसकी अति व्याख्या में न जाकर गाथाओं का मात्र शब्दानुसारी अनुवाद ही प्रस्तुत किया है ।
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यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि 'गाथासप्तशती' में शील और चारित्र को सम्पुष्ट करने वाली भी अनेक गाथाएँ हैं जिन्हें नजरअंदाज कर केवल एक पक्ष को महत्त्व देना, काव्य भावना के साथ न्याय नहीं होगा । इस अनुवाद को प्रकाशित करने की आवश्यकता इसलिये भी थी कि पूर्व की व्याख्याओं में इसकी अनेक गाथाओं को अस्पष्ट कहकर छोड़ दिया गया था। आज जब प्राकृत का पठन-पाठन समाप्त
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