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गाथासप्तशती यह उल्लेख नितान्त असंगत है क्योंकि नायक को देवर कहकर सम्बोधित करने वाली कोई प्रौढा नहीं, स्वयं उसी की भाभी है । वह अपने से भिन्न किसी अन्य प्रावारक-रहित प्रस्विन्न कलेवरा कामिनी पर छाया करने के लिये देवर से आग्रह कर रही है । वस्तुतः गाथा का प्रसंग इस प्रकार है
नायक ने परिहास में किसी तरुणी का उत्तरीय ( दुपट्टा ) छीन लिया है। वह पसीने-पसीने हो रही है। नायक की भाभी दोनों का गुप्त प्रणय-सम्बन्ध ताड़ कर कहती है—देवर ! अब परिहास मत करो, तुमने एक बार उसका दुपट्टा छीन लिया तो उसे जाड़े में भी पसीना आ गया है। अतः इसके ऊरप फिर से छाया (छाँह ) कर दो । अर्थात् अपने ही हाथों से पुनः उसके अंगों को दुपट्टे से आच्छादित कर दो। वह इतने से ही कृतार्थ हो जायेगी। यहाँ छाया का व्यंग्यार्थ कृपा है। १७. किं तस्स पारएणं किमग्गिणा कि च गन्भहरएण ।
जस्स णिसम्मइ उअरे उपहायतत्थणी जाया ? ॥७६६॥
किं तस्य पारदेन किमग्निना किं च गर्भहरकेण ।
यस्य निशाम्यति उदरे उष्णायतस्तनी जाया ॥ ___ "जिसकी छाती पर गरम और फैले स्तनों वाली जाया विश्राम करती है उसे पारे ( ? ) से क्या, अग्नि से क्या और मच्छरदानी ( ? ) से क्या ?" ___ यह अनुवाद उपहासास्पद है। अनुवादक ने अनेक शब्दों के सन्देहात्मक अर्थों पर स्वयं प्रश्नचिह्न लगा कर इसकी प्रामाणिकता के प्रति अविश्वास व्यक्त किया है । गाथा की संस्कृतच्छाया नितान्त अपभ्रष्ट है। उसमें अनेक अनर्गल शब्द अनुप्रविष्ट हो गये हैं। पूर्वार्ध में ऐसे शीत-निवारक उपादानों का वर्णन प्रासंगिक होगा जिनकी उपयोगिता तरुणी के पीनोष्णपयोधरों के कारण समाप्त हो जाती है। पारद और मच्छरदानी से शीत का निवारण नहीं हो सकता । अतः ये शब्द यहाँ अनर्थक हैं । शुद्ध संस्कृतच्छाया यह है
किं तस्य प्रावारकेण किमग्निना किञ्च गर्भगृहकेण ।
यस्य निषीदति उदरे उष्णायतस्तनी जाया ।। शब्दार्थ-गर्भगृह = गृह का भीतरी भाग । णिसम्मइ = (नि' + सेद् = निषीदति ) = बैठती है या सोती है ( पाइयसद्दमहण्णवो )।
प्रावारक = दुपट्टा गाथा का शुद्ध अर्थ यह है
जिसके पेट पर उष्ण और आयत ( विस्तृत ) स्तनों वाली पत्नी शयन १. देखें-पाइयसद्दमहण्णव ।
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