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अर्थनिरूपण के निमित्त ही अभिसार करती हैं ( घार से बाहर किसी पूर्व निश्चित स्थान पर जाती हैं।) _ अतः उक्त अनौचित्य-दोष का परिहार करने के लिये गाथा को निम्नलिखित प्रसंग में पढ़ना चाहिए
उक्त तरुणो का पति एक प्रमान्ध युवक था। वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करता था । परन्तु पत्नी किसी अन्य से प्रेम करती थी और छिप कर उससे मिलने जाया करती थी । उक्त प्रमान्ध युवक इस रहस्य को नहीं जानता था । एक दिन उसकी पत्नी अपने गुप्त प्रेमी से मिल कर लौटो तो संयोग से बाहर गया हुआ उसका पति लौट चुका था। उसने प्रिया को देखते ही प्रेमविह्वल होकर गोद में उठा लिया। पत्नी के पैरों में पंक लगा था। वह रहस्य खुल जाने से भयभीत हो गई । मारे डर के पसीना आ गया। उसी पसीने से पैरों का पंक धुल गया ।
प्रस्वेदातिरेक प्रणय और भय-दोनों में होता है। १५. ओवालअम्मि सोआलुआण वइमूलमुल्लिहंताणं । डिभाण कलिंचयवावडाण सुण्णोजलइ अग्गी ॥७६४॥
वटीप्रान्ते शीतालूनां वृतिमूलमुल्लिखताम् ।
डिम्भानां क्षुद्रधनव्यापूतानां शून्यो ज्वलत्यग्निः ।। "जाड़े से कुडकुड़ाये बालक धेरे को उखाड़ने और ईधन इकट्ठा करने में लग गए हैं, आग""में केवल जल रही है।"
‘ओवालअम्मि' का अर्थ न दे सकने के कारण यह अनुवाद अपूर्ण है। उक्त शब्द संस्कृत अपद्वारक ( घर के पीछे का द्वार ) का प्राकृत रूप है।' र और ल के अभेद के कारण ( रलयोरभेदात् ) 'ओवालअ' हो गया है।
संस्कृतच्छाया में 'वाटीप्रान्ते' के स्थान पर 'अपद्वारके' होना चाहिये । १६. मा मा मुय परिहासं देअर ! अणहोरणा वराई सा। सोअम्मि वि पासिज्जइ पुणो वि एसि कुणसु छायं ॥७६४।।
मा मा मुञ्च परिहासं देवर ! अप्रावरणा वराकी सा।
शीतेऽपि प्रस्विद्यति पुनरपि अस्यां कुरु छायाम् ।। __"हे देवर ! मत , मत, मजाक छोड़ ! बेचारी के पास ओढ़नी नहीं है, सर्दी में भी पसीजती जा रही है, फिर भी इस पर छाया कर ।"
उपयुक्त अनुवाद के पश्चात् विमर्श में यह लिखा गया है-"प्रौढा-द्वारा भावज के कामुक नायक पर व्यंग्यपूर्ण उपालम्भ ।" १. अप >ओ, द्वारक>वारअ = जो ओवार ।
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