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________________ १४ गाथासप्तशती प्रियतम सम्मुख खड़े हैं । वह अपना एकाकीपन भूल जाती है प्रेम की विह्वलता में पंकिल मार्ग की दुर्गमता से डर कर कल्पनागत प्रियतम को अपना हाथ पकड़ाने लगती है । ऐसी परिस्थिति में उसके गिर पड़ने की सम्भावना को लक्षित कर सहेली उसे सतर्क कर रही है । १४. उच्छंगिआए पइणा अहिसारणपंकमलितपेरते । आसण्णपरिक्षणों विअ सेअ चिचअ धुवइ से पाए ॥७६१ ॥ उत्सङ्गिकया (?) पत्याऽभिसारणपङ्कमलिनपर्यन्तो । आसन्नपरिजन इव सेक एव धाव्यति तस्याः पादौ ॥ “ अभिसार के समय पंक से ( पैर के ) मलिन होने के कारण पति द्वारा गोद में उठा ली गई उसके पैर को स्वेदजल ने समीप के परिजन की भाँति धो दिया । " इसकी संस्कृतच्छाया शुद्ध नहीं है । प्रश्नचिह्नांकित तृतीयान्त 'उत्सङ्गिकया' के स्थान पर षष्ठ्यन्त 'उत्सङ्गितायाः ' होना चाहिये, तभी 'तस्याः' से अन्वय सम्भव हो सकेगा । 'धुवइ' का संस्कृत रूपान्तर 'धावति' है, धान्यति नहीं । रहा है । 'पैर' के 'उठा ली गई' का षष्ठी विभक्ति 'के' अनुवाद की अपरिमार्जित भाषा अनुवादक का अभिप्र ेत अर्थ व्यक्त करने में अक्षम है । " गोद में उठा ली गई" का अन्वय पैर से हो लिये 'उठा ली गई' - यह लिखना व्याकरण - विरुद्ध अन्वय 'उस' से भी सम्भव नहीं है क्योंकि उक्त सर्वनाम में विद्यमान है । गुणीभूत षष्ठयन्त पद जिससे स्व-सम्बन्ध सूचित करता है उसके अतिरिक्त किसी अन्य से अन्वित नहीं हो सकता । यदि 'उस' के स्थान पर 'वह' रहता तो 'उठा ली गई' का अन्वय नायिका से हो जाता, परन्तु उस दशा में एक अन्य समस्या खड़ी हो जाती, नायिका से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने के कारण बेचारे पैर कहीं के न रह जाते । समाज में गृह सेवक द्वारा नवागत अतिथि का पैर धोने की परम्परा प्रचलित है । अभिसारिका तरुणी पंकपूर्ण मार्ग में चलती हुई संकेतस्थल पर प्रेमी से मिलने आई है । इस निर्जन में न गृह है, न गृहसेवक । अतः उसके पंकिल चरणों को उसी का प्रस्वेद निकटस्थ सेवक के समान धो देता है । स्वेदोद्गम प्रणय का एक सात्त्विकभाव है । यहाँ तात्पर्य यह है - प्रेमी का आंगिक संस्पर्श पाकर तरुणी पसीने से इतना तर हो गई कि उसके चरणों का पंक स्वयमेव धुल गया । है Jain Education International यहाँ अभिसारिका के प्रसंग में नायक के लिये पतिशब्द का प्रयोग अनुचित है क्योंकि, उससे मिलने के लिये न संकेतस्थल की आवश्यकता है, न अभिसार की। पति तो गृह में ही सुलभ रहता है। तरुणियाँ प्रच्छन कामुकों से मिलने । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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