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________________ अर्थनिरूपण १७ करतो है उसे (जाड़े से बचने के लिये) दुपट्टे की क्या आवश्यकता है और क्या आवश्यकता है गृह के भीतरी भाग की ? ( जहाँ छिप जाने पर शीत का प्रभाव कम हो जाता है।) १८. उवइसइ लडियाण कड्ढेइ रसं, ण देइ सोत्तुं जे। जंतस्स जुव्वणस्स य ण होइ इच्छु चिचय सहावो ॥७६९॥ उपविशति ललितानां कर्षयति रस न ददाति श्रोतुं च । यन्त्रस्य यौवनस्य च न भवति इक्षरिव स्वभावः॥ "गाथार्थ अस्पष्ट ।" "विमर्श-ललितों का उपदेश करता है, रस काद लेता है, सुनने नहीं देता, यन्त्र और यौवन का स्वभाव"।" प्रस्तुत गाथा में श्लिष्ट विशेषणों के माध्यम से प्रस्तुत और अप्रस्तुत-दोनों के साधर्म्य एवं वैधयं का एक ही साथ प्रतिपादन होने के कारण आर्थिक जटिलता आ गई है। यहाँ यन्त्र ( कोल्हू ) और यौवन प्रस्तुत ( उपमेय ) है। इक्षु ( ईख ) अप्रस्तुत ( उपमान ) है । तीनों की समानता और असमानता का आधार शाब्दिक है । कोई तरुणी कह रही है कि यौवन और यन्त्र ( कोल्हू ) का स्वभाव इक्षु के समान नहीं होता। उपलब्ध संस्कृतच्छाया से न तो श्लिष्ट पदों की पहचान सम्भव है और न तीनों पक्षों के अर्थ ही समझ में आ सकते हैं । अतः प्रकरणानुसार संस्कृतच्छाया का स्वरूप यह होगा उपविशति ( उपदिशति ) कर्षति (कर्षयति ) रसं न ददाति श्रोतु (स्वप्तु, स्रोतु) एव। __ यन्त्रस्य यौवनस्य च न भवति इक्षुरिव स्वभाव ॥ शब्दार्थ प्राकृत संस्कृतरूप अर्थ उपइसई १. उपविशति ( यन्त्रपक्ष बैठता है, स्थित होता है । २. उपदिशति ( यौवनपक्ष ) सिखाता है । ३. उपविशति (इक्षुपक्ष ) प्रवेश करता है। लडिय ___ ललित-( यन्त्रपक्ष) १. सरल कोमल ( यौवनपक्ष ) २. शृंगारिक चेष्टा विशेष ( इक्षुपक्ष ) ३. प्रिय, सुन्दर १. धात्वर्थ बाधते कश्चित् कश्चित्तमनुवर्तते । विशिनष्टि तमेवार्थमुपसर्गगतिस्त्रिधा ।। के अनुसार उपसर्ग उप + विश् के ही अर्थ का अनुवर्तन करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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