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अर्थनिरूपण
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करतो है उसे (जाड़े से बचने के लिये) दुपट्टे की क्या आवश्यकता है और क्या आवश्यकता है गृह के भीतरी भाग की ? ( जहाँ छिप जाने पर शीत का प्रभाव कम हो जाता है।) १८. उवइसइ लडियाण कड्ढेइ रसं, ण देइ सोत्तुं जे।
जंतस्स जुव्वणस्स य ण होइ इच्छु चिचय सहावो ॥७६९॥ उपविशति ललितानां कर्षयति रस न ददाति श्रोतुं च । यन्त्रस्य यौवनस्य च न भवति इक्षरिव स्वभावः॥ "गाथार्थ अस्पष्ट ।"
"विमर्श-ललितों का उपदेश करता है, रस काद लेता है, सुनने नहीं देता, यन्त्र और यौवन का स्वभाव"।"
प्रस्तुत गाथा में श्लिष्ट विशेषणों के माध्यम से प्रस्तुत और अप्रस्तुत-दोनों के साधर्म्य एवं वैधयं का एक ही साथ प्रतिपादन होने के कारण आर्थिक जटिलता आ गई है। यहाँ यन्त्र ( कोल्हू ) और यौवन प्रस्तुत ( उपमेय ) है। इक्षु ( ईख ) अप्रस्तुत ( उपमान ) है । तीनों की समानता और असमानता का आधार शाब्दिक है । कोई तरुणी कह रही है कि यौवन और यन्त्र ( कोल्हू ) का स्वभाव इक्षु के समान नहीं होता।
उपलब्ध संस्कृतच्छाया से न तो श्लिष्ट पदों की पहचान सम्भव है और न तीनों पक्षों के अर्थ ही समझ में आ सकते हैं । अतः प्रकरणानुसार संस्कृतच्छाया का स्वरूप यह होगा
उपविशति ( उपदिशति ) कर्षति (कर्षयति ) रसं न ददाति श्रोतु (स्वप्तु, स्रोतु) एव।
__ यन्त्रस्य यौवनस्य च न भवति इक्षुरिव स्वभाव ॥ शब्दार्थ प्राकृत संस्कृतरूप
अर्थ उपइसई १. उपविशति ( यन्त्रपक्ष बैठता है, स्थित होता है ।
२. उपदिशति ( यौवनपक्ष ) सिखाता है ।
३. उपविशति (इक्षुपक्ष ) प्रवेश करता है। लडिय
___ ललित-( यन्त्रपक्ष) १. सरल कोमल
( यौवनपक्ष ) २. शृंगारिक चेष्टा विशेष
( इक्षुपक्ष ) ३. प्रिय, सुन्दर १. धात्वर्थ बाधते कश्चित् कश्चित्तमनुवर्तते ।
विशिनष्टि तमेवार्थमुपसर्गगतिस्त्रिधा ।। के अनुसार उपसर्ग उप + विश् के ही अर्थ का अनुवर्तन करता है ।
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