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सप्तमं शतकम्
एक्केण वि वडबीअंकुरेण सअलवणराइमज्झम्मि । तह तेण कओ अप्पा जह सेसदुमा तले तस्स ॥ ७० ॥
[ एकेनापिवटबीजाङ्करेण
सकलवनराजिमध्ये | तथा तेन कृत आत्मा यथा शेष दुमास्तले तस्य ॥ ]
नन्हें से वट-बीज से निकले हुए अकेले अंकुर ने सम्पूर्ण वन में ऐसा विस्तार कर लिया कि अब सारे वृक्ष उसके नीचे आ गये || ७० ॥
जे जे गुणिणो, जे जे अ चाइणो, जे विडड्ढविण्णाणा । वारिद्द ! रे विअक्खण ! ताणें तुमं साणुराओ सि ॥ ७१ ॥
[ ये ये गुणिनो ये ये च यत्यागिनो ये विदग्धविज्ञानाः । दारिद्य रे विचक्षण तेषां त्वं सानुरागमसि ॥ ]
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हे दारिद्र्य ! तुम बड़े ही बुद्धिमान हो क्योंकि जितने गुणी, त्यागी, रसिक और विद्वान् हैं, उन पर अधिक स्नेह करते हो । ७१ ।।
जह कोत्तिओ सि सुन्दर ! सअलति हो चंददंसणसुहाणं । ता मसिणं मोइज्जन्तकञ्चुअं मुहं से ॥ ७२ ॥
पेक्खसु पेक्खसु
[ यदि कौतुकिकोऽसि सुन्दर सकलतिथिचन्द्रदर्शन सुखानाम् । तन्म सृणं मोच्यमानकञ्चुकं प्रेक्षस्व मुखं
तस्याः ॥ ]
प्यारे ! तुम्हें यदि सभी तिथियों के चन्द्र-दर्शन का सुख पाने का कौतुक हो तो धीरे-धीरे कंचुक उतारने वाली महिला का मुख देखो ।। ७२ ।।
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समसिमणिव्विसेसा समन्तओ
मन्दमन्दसंआरा ।
अइरा होहिन्ति पहा मणोरहाणं पि दुल्लंघा ॥ ७३ ॥
[ समविषमनिर्विशेषाः समन्ततो मन्द मन्दसञ्चाराः । अचिराद्भविष्यति पन्थानो मनोरथानामपि दुर्लङ्घ्याः ॥ ]
जिन पर ऊँची-नीची भूमिका भेद मिट गया है और पथिक जहाँ धीरे-धीरे चलते हैं, शीघ्र ही उन बरसाती मार्गों को मनोरथ भो लाँघ न सकेंगे ।। ७३ ।। अइवीहराई बहुए ! सीसे दीसन्ति वंसवत्ताइं । भणिए भणामि अत्ता ! तुम्हाणं वि पण्डुरा पुट्ठी ॥ ७४ ॥
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