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गाथासप्तशती [ अतिदीर्घाणि वध्वाः शीर्षे दृश्यन्ते वंशपत्राणि ।
भणिते भणामि श्वश्रु युष्माकमपि पाण्डुरं पृष्ठम् ॥ ] ___ 'बह को वेणी में बांस के बड़े-बड़े पत्ते फंसे दिखायी देते हैं, यह सुनकर वह बोली-आर्थे ! तुम्हारी पीठ भी पाण्डुर ( फल से उजलो है ) ॥ ७४ ।। अत्थक्करूसणं खणपसिणं अलिअवअणणिब्बन्धो। उम्मच्छरसंतावो पुत्तअ ! पअवी सिणेहस्स ॥ ७५ ॥
[आकस्मिकरोषकरणं क्षणप्रसादनमलोकवचनानिबन्धः।
उन्मत्सरसंतापः पुत्रक पदवी स्नेहस्य ॥] आकस्मिक रोष करना, क्षण भर में प्रसन्न होना, झूठे वचनों से आग्रह करना और ईर्ष्या से सन्तप्त होना यही प्रेम का मार्ग है ॥ ७५ ॥ पिज्जइ कण्णज्जलिहिं जणरवमिलिअंवि तुज्म संलावं । बुद्धं जणसमिलिअं सा बाला राअहंसि व्व ॥ ७६ ॥
[ पिबति कर्णाञ्जलिभिजनरवमिलितमपि तव संलापम् ।
दुग्धं जलसंमिलितं सा बाला राजहंसीव ॥ ] वह बाला जनख में मिले हुए भी तुम्हारे वचन कानों की अंजलि में भर कर वैसे ही पी रही है जैसे जल में मिले हुए दूध को राजहंसी पीती है ।। ७६ ॥ अइ उज्जुए ! ण लज्जसि पुच्छिज्वन्ती पिअस्स चरिआई। सम्वङ्गसुरहिणो मरुवअस्स किं कुसुमरिद्धीहि ? ॥ ७७ ॥
[ अयि ऋजुके न लज्जसे पृच्छन्ती प्रियस्य चरितानि ।
सर्वाङ्गसुरभेर्मरुबकस्य किं कुसुमद्धिभिः॥] अरी सरले ! तू प्रिय का चरित पूछते हुए लज्जित नहीं होती जिसके सभी अंग सुरभिपूर्ण हैं, उस मरुबक ( मरुआ ) का पुष्पों से क्या प्रयोजन ? ।। ७७ ॥ मुद्धे ! अपत्तिअन्ती पवालअंकुरअवण्णलोहिअए गिद्धोअधाउराए कीस सहत्थे पुणो धुअसि ? ॥ ७८ ॥
[ मुग्धेप्रत्ययन्ती प्रवालाङ्करवर्णलोहितौ।
निधौतधातुरागौ किमिति स्वहस्तौ पुनर्धावयसि ॥] मुग्धे ! जिसमें लगा हुआ लाल रंग धुल जाने पर भी तुझे विश्वास नहीं हो रहा है, उन नव पल्लव के समान अरुण हाथों को बार-बार क्यों धो रही हो? ॥ ७८ ॥
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