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________________ सप्तमं शतकम् उअ ! सिन्धवपव्व असच्छहाइँ धुअतूलपुञ्जसरिसाई । सोहन्ति सुअण मुक्कोअआई सरए [ पश्य सैन्धवपर्वतसदृक्षाणि धुततूलपुञ्जसदृशानि । शोभन्ते सुतनु मुक्तोदकानि शरदि सिता भ्राणि ॥ ] देखो, पशु-भक्षियों के द्वारा ले जाये जाते हुए भैसे जन्म भूमि के कुजों को अन्तिम बार घूम-घूमकर, रहे हैं ॥ ८० ॥ सुन्दरी ! देखो, शरद में पानी बरसा कर जो रिक्त हो गये हैं वे शुभ्र मेघ यों शोभित हो रहे हैं, जैसे नमक के पहाड़, धुनी हुई रुई की राशि ।। ७९ ।। आउच्छन्ति सिरेहिं विवलिहिँ उअ ! खडिएहिं णिज्जन्ता । पिच्छिमवलिअपलोइएहिं महिसा महिसा कुडजाई ॥ ८० ॥ [ आपृच्छन्ति शिरोभिर्विवलितैः पश्य खङ्गिकैर्नीयमानाः । नि:पश्चिमवलितप्रलोकिते मंहिषाः कुञ्जान् ॥ ] १६३ अभाई ॥ ७९ ॥ पुसउ मुहं ता पुत्ति ! अ वाहोअरणं विसेसरमणिज्जं । मा एअं चिअ मुहमण्डणं त्ति सो काहि पुणो वि ।। ८१ ॥ वहुआइ अपनी गरदन मोड़ कर निहारते हुए विदा माँग [ प्रोञ्छस्व मुखं तत्पुत्ति च (पुत्रिके) वाष्पोपकरणं विशेषरमणीयम् । इदमेव मुखमण्डनमिति करिष्यसि पुनरपि ॥ ] मा बेटी ! आँसुओं की भूषा से जो विशेष रमणीय हो गया है, अब वह मुख पोंछ डालो किन्तु आँसुओं को ही मुख का शृंगार समझ कर उससे फिर कभी अपना मुख न सजान ॥ ८१ ॥ मज्झे पअणुअपच अवहोवासेसु साणचिक्खिल्लं । गामस्स सीससीमन्तअं व Jain Education International [ मध्ये प्रतनुक पङ्कमुभयोः पार्श्वयोः श्यानकर्दमम् । ग्रामस्य शीर्षसीमन्तमिव रथ्यामुखं जातम् ॥ ] जिसके बीच में थोड़ा सा पंक रह गया हैं और दोनो किनारे सूख गये हैं । वह गली गाँव के शीर्ष - सीमन्त ( माँग ) सी हो गई है ॥ ८२ ॥ अवरजागअजामाउस्स विउणेइ घरपलोहरमज्जण पिसुणो रच्छामुहं जाअं ॥ ८२ ॥ मोहक्कण्ठं । वलअसद्दो ॥ ८३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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