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________________ ६२ गाथासप्तशती है और अधरों पर दन्तक्षत के चिन्ह हैं ! अतः अंजनलक्ष्म को छिपाने के लिये निनिमेष नेत्रों से देख रहा है, दन्तक्षत को प्रकाशित होने से बचाने के लिये नीचे मुह करके बातें कर रहा है और पत्नी के मनःप्रसादन के लिये प्रिय भाषण कर रहा है। वह उसका अपराध समझकर व्यंग्य एवं तिरस्कारपूर्वक कह रही है :___अरे सुभग ! तुम्हारा क्या दोष है ? तुम तो मुझे अपलक नयनों से देख रहे हो, विनत होकर बात कर रहे हो और जो मुझे इष्ट है वही बात कर रहे हो, मेरा ही मरा हृदय निष्ठुर है ( जो इस प्रकार निर्दोष और भोले प्रेमी को खिन्न कर रही हूँ।) यहाँ नायिक अपने वचनपाटव से नायक के अपराध गोपन-व्यापारों को प्रणयपक्ष में यों संघटित कर रही है मैं इतनी प्रिय लग रही हूँ कि मुझे देखते हुए तुम्हारी पलके हो नहीं गिर रही हैं, तुम इतने विनम्र हो गये हो कि शिर नीचे करके बात कर रहे हो और वही बात कर रहे हो जो मुझे प्रिय लगती है। इतने विनम्र प्रियभाषी और सतत मुखप्रेक्षी प्रणयो का तिरस्कार करके मैंने निष्ठुरता का परिचय दिया है । अतः अपराध मेरा है, तुम निर्दोष हो। नायिका की उक्ति में विपरीतलक्षणा है । अतः द्वितीयार्थ इस प्रकार होगा अरे दुर्भग ! ( अभागे ) तू अंजनलांछन गोपन के लिये अपलक नयनों से देखता है, दन्तक्षत गोपनार्थ मुख नीचे करके बात करता है और अपराध से भीत होने के कारण मुझे रुचने वाली बातें कहता है । सब दोष तेरा है । मेरा हृदय न भरा है और न मैं निष्ठुर ही हूँ। 'जंपसि विण' की संस्कृतच्छाया 'जल्पसि विनतम्' होगी। ७४. अणुवतंतो अम्हारिसं जणं आहिजातीए । चितेसि उणो हिअए अणाहिजाई सुहं जअइ ।। ९३९ ।। अनुवर्तमानोऽस्मादृशं जनमभिजात्या । __ चिन्तयसि पुनर्हृदयेऽनभिजातिः सुखं जयति ॥ - "हमारे सदृश जन का कुलीनता से अनुगमन करते हुये भी तुम सोचा करते हो कि अकुलीनता के कारण सुख से जीते हैं।" अनुवादक ने गाथा का अर्थ ही विपर्यस्त कर दिया है। इसमें एक ऐसे प्रेमी का वर्णन है जो किसी अन्य तरुणी में आसक्त होने पर भी बाह्य कुलीनता के कारण अनिच्छा से अपनी पत्नी का अनुवर्तन करता है और मन में चिन्तित भी रहता है। उसकी पत्नी इस रहस्य को जानकर कहती है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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