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अर्थनिरूपण आद्र या गीला' । विसेसओ ( विशेषकः ) तिलक का वाचक है । तण्णाओ इसी का विशेषण है । उत्तराध का संस्कृतरूपान्तर यों होगा :--
ततो मम प्रिय सख्या विशेषकः कस्मादाद्रः। प्रसंग-नायिका को सखी का चुम्बन करते समय नायक का आई तिलक उस ( नायिका की सखी ) के मुंह या मस्तक में लग गया है । फिर वही नायक जब नायिका के कपोलों का चुम्बन करता है, तब वह सखी को आद्र' तिलक में लांछित देखकर सब रहस्य ताड़ जाती है और रोषपूर्वक कहती है :
गापार्थ-अरे प्रत्यक्ष अपराध करने वाले ! यदि तू मेरे इन मरे (अभागे) कपोलों को चमता है, तो मेरी प्रिय सखी के आर्द्र तिलक कहाँ से हो जाता है ? ( अथवा मेरी सखी का तिलक कैसे गीला हो जाता है । )
बाशय यह है कि तू मेरा ही नहीं, मेरी सखी का भी कामुक है । प्रिय सखी शब्द में विपरीत लक्षणा है। ७३. को सुहअ ! तुज्झ दोसो ? हअहिअ गिठ्ठरं मज्जा ।
पेच्छसि अणिमिसणअणो जंपसि विण जंपसे पिटुं॥
कः सुभग ! तव दोषः ? हतहृदयं निष्ठुरं मम । प्रेक्षसेऽनिमिषनयनो जल्पसि विनयं जल्पसि पृष्ठम् ॥
"हे सुभग ! तुम्हारा कौन दोष है ? मेरा अभागा हृदय निष्ठुर है । तुम तो निनिमेष आंखों से निहारते हो, विनय से बोलते हो और पूछे गये को नहीं बोलते हो।"
इस भोंड़े अनुवाद ने गाथा का काव्य-चमत्कार ही चौपट कर दिया है । प्राकृत कवि ने 'जंपसे पिट्ठ' के द्वारा पूछे गये' को बताने की बात लिखी है । अनुवादक ने उसका प्रतिषेधात्मक अर्थ किस आधार पर दिया है-यह समझ में नहीं आता। जंप क्रिया का दो बार प्रयोग साभिप्राय है, अतः गाथा में पुनरुक्ति दोष नहीं है । अर्थनिरूपण के पूर्व 'पिट्ठ' शब्द की निरुक्ति आवश्यक है । इष्ट ( इष् + क्त ) का अर्थ वांछित, अभिलषित या मनोनुकूल होता है । इसमें प्र जोड़ देने पर (प्र+ इष्ट ) प्रेष्ट शब्द निष्पन्न होता है। 'प्रेष्ट' का प्राकृत रूप 'पेट्ठ' होगा । जैसे 'सेट्ठ' का प्राकृत में 'सिट्ठ' हो जाता है वैसे ही 'पेट्ठ' का पिट्ठ' हो गया। इस शब्द का अर्थ है-मनोनुकूल या वांछित । ___ अब गाथा के प्रकरण का प्रेक्षण करें। अपराधी नायक अन्य तरुणी से रमण करके रुष्ट नायिका के निकट आया है और अपना दोष छिपाकर उसे प्रसन्न करना चाहता है । उसकी पलकों में प्रेयसी ( रखैल ) का अंजन लगा १-पाइअसद्दमहण्णव
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