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पञ्चमं शतकम्
[ प्रकटितं सौभाग्यं गवा पश्यत गोष्ठमध्ये | दुष्टवृषभस्य शृङ्गे अक्षिपुटं कण्डूयन्त्या || ]
देखो, दुष्ट बैल की सींग से अपनी आँख खुजलाने वाली गाय ने गोष्ठ में अपना सौभाग्य प्रकट कर दिया ॥ ६० ॥
उअ संभमविक्खित्तं रमिअव्वअलेहलाएँ असईए । णवरङ्गअं कुडते धअं व दिण्णं अविणअस्स ॥ ६१ ॥
[ पश्य संभ्रमविक्षिप्तं रन्तव्यकलापट्या असत्या | नवरङ्गकं कुञ्जे ध्वजमिव दत्तमविनयस्य ॥ ]
रति लम्पट कुलटा ने रमण के समय उतावली में : झट से उतार कर रख दिया था, वह व्यभिचार की फहरा रही है ॥ ६१ ॥
चतुर दुहने वाले के हाथों का स्पर्श पाकर - उमड़ने लगता है, किन्तु बेटा, दर्शन मात्र से पाओगे ।। ६२ ।
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हत्थ फंसेण जरग्गवी वि पण्हहइ दोह अगुणेण । अवलोअणपण्डुर पुत्तअ पुण्णेहिं पाविहिसि ॥ ६२ ॥ [ हस्तस्पर्शन जरद्वस्यपि प्रस्नोति दोहदगुणेन । अवलोकनप्रस्नवनशोलां पुत्रक पुण्यैः प्राप्स्यसि ॥ ]
अपना जो कुसुम्भी वस्त्र
पताका के समान कुंज में
बूढ़ी गाय के स्तन में भी दूध प्रस्तुत - पयोधरा गाय पुण्य से ही
मसिणं चङ्क्रम्मन्ती पए पए कुणइ कीस मुहभङ्गं ।
जूणं से मेहलिआ जहणगअं छिवइ णहवन्ति ॥ ६३ ॥
| मसृणं चङ्क्रम्यमाणा पदे परे करोति किमिति मुखभङ्गम् । नूनं तस्या मेखलिका जघनगतां स्पृशति नखपंक्तिम् ॥ ]
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अरी ! वह मन्द गति से चलती हुई मुँह क्यों सिकोड़ रही है ? अवश्य ही
: उसकी मेखला जांघों पर अंकित नख-पंक्ति से छू जाती होगी ।। ६३ ।। संवाहणसुहरसतोसिएण देन्तेण तुहकरे लक्खं । चलणेण विक्कमाइत्तचरिअँ अणुसिक्खिअं तिस्सा ॥ ६४ ॥ [ संवाहन सुखरसतोषितेन ददता तव करे लाक्षाम् । चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुशिक्षितं तस्याः ॥ ]
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