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________________ १९० गाथासप्तशती धावइ पुरओ पासेसु भमइ दिट्ठीपहम्मि संठाइ । णवलइकरस्स तुह हलियाउत्त दे पहरसु वराइं ॥ ५६ ॥ _ [धावति पुरतः पार्श्वयोभ्रमति दृष्टिपथेसंतिष्ठते । - नवलतिकाकरस्य तव हलिकपुत्र हे प्रहरस्व वराकीम् ।। ] हाथ में नवीन लता की डाली धारण करने पर वह कभी तुम्हारे चारों ओर दौड़ लगाती है और कभी पास आ जाती है, किन्तु आँखों से ओझल नहीं होती। बेटा ! तुम इसे मारो ।। ५६ ।। कारिममाणन्दवडं भामिजतं बहू सहिआहिं। १ पेच्छइ कुमरिजारो हासुम्मिस्सेहिं अच्छोहिं ।। ५७ ॥ [ कृत्रिममानन्दपटं भ्राम्यमाणं वध्वा सखीभिः । प्रेक्षते कुमारीजारो हासोन्मिश्राभ्यामक्षिभ्याम् ।। ] बहू का कृत्रिम आनन्द-पट लेकर सखियाँ जब घर-घर घूम रही थी तो विवाह के पूर्व का प्रेमी हंसते हुए नयनों से देख रहा था ॥ ५७ ।। सणि सणि ललिअगुलोअ मअणवडलाअणमिसेण । बन्धेइ धवलवणवट्ट व वणिआहरे तरुणो ॥ ५८ ॥ [शनकैः शनकैललिताङ्गुल्या मदनपटलापनमिषेण । बध्नाति धवलवणपट्टमिव व्रणिताधरे तरुणी॥] मोम का लेप करने के व्याज से वह तरुणी अपनी ललित अंगुलि से मानो खण्डित अधर पर धीरे-धीरे सफेद पट्टी बाँध रही है ॥ ५८ ॥ रइविरमलज्जिआओ अप्पत्तणि सणाओं सहस व्व । ढक्कन्ति पिअअमालिङ्गणेण जहणं कुलवहूओ ॥ ५९ ॥ [ रतिविरामलज्जिता अप्राप्तनिवसनाः सहसैव । आच्छादयन्ति प्रियतमालिङ्गनेन जघनं कुलवध्वः ॥] रति के अन्त में लज्जित वनिताएं वस्त्र न मिलने पर प्रिय के आलिंगन से सहसा अपनी जाँघे ढंक लेती हैं ॥ ५९ ।। पाअडिअं सोहग्गं तम्बाए उअह गोटुमज्झम्मि । दुवसहस्स सिङ्गे अक्खिउडं कण्डअन्तीए ॥ ६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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