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गाथासप्तशतो
मर्दन के सुख से सन्तुष्ट होकर, उसके चरणों ने तुम्हारे हाथों को अलक्तक रंजित करते हुए शत्रुबाधक भृत्य को लक्ष मुद्रा प्रदान करने वाले महाराज विक्रमादित्य के चरित का अनुकरण किया है ॥ ६४ ॥
पाअपडणाण मुद्धे रहसबलामोडिचुम्बिअवाणं । दसणमैत्तपसण्णे चुक्कासि सुहाण बहुआणं ॥६५॥
[ पादपतनानां मुग्धे रभसबलात्कारचुम्बितव्यानाम् ।
दर्शनमात्रप्रसन्ने भ्रष्टासि सुखानां बहुकानाम् ॥] प्रिय को देखते ही मगन हो जाने वाली मुग्धे ! चरणों पर गिरकर मनाना और वेग से बलपूर्वक चुम्बन करना तथा ऐसे ही बहुत से सुखों से तू वंचित रह गई ॥ ६५ ॥ दे सुअणु पसिअ एण्हि पुणो वि सुलहाइं रुसिअन्वाई। एसा मच्छि मअलग्छणुज्जला गलइ छणराई ॥ ६६ ॥
[हे सुतनु प्रसीदेदानीं पुनरपि सुलभानि रोषितव्यानि ।
एषा मृगाक्षि मृगलाञ्छनोज्ज्वला गलति क्षणरात्रिः।।] तन्वंगी, इस समय प्रसन्न हो जाओ, फिर कभी रूठ लेना । यह चन्द्रोज्ज्वला उत्सव-रजनी क्षीण हो रही है ।। ६६ ।।
आवण्णाई कुलाइं दो विअ जाणन्ति उण्णई णेउं । गोरीअ हिअअदइओ अहवा सालाहणणरिन्दो ॥६७ ॥
[ आपन्नानि कुलानि द्वावेव जानीत उन्नति नेतुम ।
गौर्याहृदयदयितोऽथवा शालिवाहननरेन्द्रः ।। ] आपन्न कुलों (श्लेष द्वारा अपर्णा का कुल) का उद्धार करना दो ही व्यक्ति जानते हैं, या तो गौरी के हृदय वल्लभ अथवा राजा शालिवाहन ।। ६७ ॥ णिक्कण्ड दुरारोहं पुत्तअ मा पाडलि समारुहस्सु । आरूढणिवडिआ के इमीअ ण का हआसाए ॥ ६८ ॥ [निष्काण्डदुरारोहां पुत्रक मा पाटलि समारोह ।
आरूढ़निपतिताः के अनया न कृता हताशया ॥] पुत्र ! शाखाहीन दुरारोह पाटली (वृक्ष) पर मत चढ़ना, इस पापिन ने चढ़ने पर किसे-किसे नहीं गिराया? ॥ ६८ ॥
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