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पञ्चम शतकम्
११३ गामणिघरम्मि अत्ता एक्क विअ पाडला इहग्गामे । बहुपाडलं च सीसं दिअरस्स ण सुन्दरं एवं ॥ ६९ ॥
[ग्रामणिगृहे श्वश्रु एकैव पाटला इह ग्रामे ।
बहुपाटलं च शीर्ष देवरस्य न सुन्दरमेतत् ॥] __सासु जी ! इस गांव में मुखिया के घर में पाटला का एक ही वृक्ष है, किन्तु देवर का मस्तक अनेक पाटल-पुष्पों से विभूषित हो रहा है यह ठीक नहीं ॥ ६९ ॥
अण्णाण वि होन्ति मुहे पम्हलधवलाई दोहकसणाई। गअणाई सुन्दरीणं तह वि हु दलृ ण जाणन्ति ॥ ७० ॥ [ अन्यासामपि भवन्ति मुखे पक्ष्मलधवलानि दोर्घकृष्णानि ।
नयनानि सुन्दरीणां तथापि खलु द्रष्टुन जानन्ति ॥] अन्य सुन्दरियों के आनन में भी दीर्घ भौहों वाले शुभ्र और विशाल कजरारे नेत्र विद्यमान है, किन्तु उनमें निहारने को वैसी पटुता कहाँ है ।। ७० ॥ हंसेहि व तु रणजलअसमअभअचलिअविहलवक्खेहि । परिसेसिअपोम्मासेहिं माणसं गम्मइ रिहिं ॥ ७१ ॥
[ हंसैरिव तव रणजलदसमयभयचलितविह्वलपक्षैः ।
परिशेषितपद्माशेर्मानसं गम्यते रिपुभिः ॥ ] राजन् ! वर्षा ऋतु से भयभीत चंचल और विह्वल पंख वाले हंस जैसे कमलों की आशा त्यागकर मानसरोवर को चले जाते हैं-वैसे ही रण के भय से जिनके सहायक विह्वल एवं अधीर हो चुके हैं तथा जिन्होंने लक्ष्मो की आशा बिल्कुल छोड़ दी है, वे शत्रु तुम्हारे मन के अनुकूल ही चलते हैं ।। ७१ ।।
दुग्गअधरम्मि घरिणी रक्खन्ती आउलत्तणं पइण्णो। पुच्छिअदोहलसद्धा पुणो वि उअअं विअ कहेइ ॥ ७२ ॥
[ दुर्गतगृहे गृहिणी रक्षन्ती आकुलत्वं पत्युः।।
पृष्टदोहदश्रद्धा पुनरप्युदकमेव कथयति ।।] "तेरी क्या इच्छा है" यह पूछने पर दरिद्र की गभिणी प्रिया, पति को कहीं दुःख न हो, इसलिए केवल जल को याचना करती है ।। ७२ ।।
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