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गाथासप्तशती की अस्पष्ट अतिरिक्त गाथाओं का __ अर्थ निरूपण
-विश्वनाथ पाठक पौरस्त्य और पाश्चात्य विद्वानों ने गाथासप्तशती पर पुष्कल टीकायें रची हैं। डॉ० जगन्नाथ पाठक ने सभी उपलब्ध टीका-साहित्य का अवलोकन कर विमर्श के साथ प्रकाश नामक अभिनव व्याख्या प्रस्तुत की है। वह चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से १९६९ ई० में प्रकाशित हुई है। व्याख्याकार ने गाथासप्तशती की सभी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में समान रूप से उपलब्ध होने वाली गाथाओं को ही प्रामाणिक माना है। जो गाथायें सभी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में नहीं मिलती, किसी-किसी में ही संगृहीत हैं उन्हें ग्रन्थ के उत्तरार्ध में स्थान देकर हिन्दी में अनूदित किया है। गाथासप्तशती के उक्त चौखम्बा-संस्करण के उत्तरार्ध में मुद्रित अनेक अतिरिक्त गाथाओं का प्राकृतपाठ भ्रष्ट एवं खंडित है। अतः उनकी व्याख्या नहीं की जा सकी है, वे अस्पष्टार्थ खंडित और अशुद्ध कहकर छोड़ दी गई हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय ऐसी रसपेशल श्रेष्ठ गाथायें भी हैं जिनका साहित्यिक-स्तर ही भ्रामक और अनर्गल व्याख्या के कारण नीचे गिर गया है ।
जिन अनुपम काव्यामृतनिष्पन्दभूत गाथाओं की रचना में कभी अनेक प्रतिभामण्डित महाकवियों ने सुयश की मधुर कल्पना से समाहित होकर अपना मानसिक श्रम और अमूल्य समय लगाया था वे ही आज प्रमत्तप्रलापवत् निरर्थक बन गई हैं, इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ? अतः संग्रह-ग्रन्थों में कूड़े की तरह उपेक्षित पड़ी हुई, लिपिकर्ताओं के प्रमाद से अभिशप्त, अशुद्ध एवं खण्डित गाथाओं के स्वरूप और अर्थ का समुचित संघटन नितान्त आवश्यक कार्य है । यद्यपि किसी प्राचीन कवि की उपलब्ध रचना में अपनी ओर से कुछ घटाना-बढ़ाना अथवा अन्यथा करना अनधिकार-चेष्टा है तथापि उसे निरर्थकता के अभिशाप से मुक्त कर देने में कोई दोष नहीं है। मैंने अर्थसंघटन के लिये गाथाओं के उपलब्ध पदों का ही यथासंभव उपयोग करने का प्रयास किया है । छन्द की दृष्टि से मात्राओं की अधिकता या न्यूनता की स्थिति में किञ्चित् परिवर्तन करना पड़ा है। विकृत एवं निरर्थक पदों को सार्थक बनाने के लिये लुप्त मात्राओं या वर्णों का अनुसन्धान, अनर्गल अनुप्रविष्ट अक्षरों का परिहार, अन्यथाभूत वर्णों अथवा मात्राओं के वास्तविक स्वरूप का अवधारण और अपने
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