SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयं शतकम् विरहे विसं व विसमा अमअमआ होइ संगमे अहि। 'कि विहिणा समअं विअ दोहि वि पिआ विणिमिमआ॥३५॥ [विरहे विषमिव विषमामृतमया भवति संग मेऽधिकम् । कि विधिना सममेव द्वाभ्यामपि प्रिया विनिर्मिता ।।] मेरी प्रिया संयोग में अमृत-सी मधुर और वियोग में विष-सो विषम हो जाती है। क्या विधाता ने दोनों को समान भाग लेकर उसको सृष्टि को है ॥ ३५ ॥ अदंसणेण पुत्तअ सुठ्ठ वि हाणुबन्धघडिआई। हत्थउडपाणिआई व कालेण गलन्ति पेम्माइं ॥ ३६ ॥ [ अदर्शनेन पुत्रक सुष्ट्वपि स्नेहानुबन्धघटितानि । हस्तपुटपानीयानीव कालेन गलन्ति प्रेमाणि ।। ] अत्यन्त उत्कट और सुदृढ़ प्रेम, न देखने से अंजलि में रखे हुए जल को भांति ‘कालान्तर में च्युत हो जाता है ॥ ३६ ।। पहपुरओ बिअ णिज्जइ विच्छुअदद्रुत्ति जारवेज्जहरं । णिउणसहोकरधारिअ भुअजुअलन्दोलिणी बाला ॥ ३७ ॥ [पतिपुरत एव नीयते वृश्चिकदष्टेति जारवैद्यगृहम् ।। निपुणसखीकरधृता भुजयुगलान्दोलनशोला बाला ॥] "बिच्छू ने डंक मार दिया है" इस बहाने से दोनों हाथ झिटकती हुई चन्द्रमुखी को निपुण सखी पति के सामने ही पकड़ कर प्रेमी विष वैद्य के घर ले जाती है । ३७ ॥ विक्किणइ माहमासम्मि पामरो पाइडि वइल्लेण । णिळूममुग्मुर विअ सामलोअ थणो पडिच्छन्तो ॥ ३८ ॥ [विक्रोणीते माघमासे पामरः प्रावरणं बलोवर्दैन । निधूममुमुरनिभौ श्यामल्याः स्तनौ पश्यन् ॥ ] षोडशो प्रिया के निधूम करोषाग्नि सदृश पयोधरों को देख कर किसान ने माघ में कम्बल बेंच कर बैल खरीद लिये ॥ ३८ ॥ सच्चं भणामि मरणे टिअह्मि पुण्णे तडम्मि तावोए । अज्ज वि तत्थ कुडने णिवडइ दिट्ठो तह च्चे ॥ ३९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy