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गाथासप्तशती
धाराधुव्वन्तमुहा लम्बिअवक्खा णिउञ्चिअग्गीवा । वइवेढनेसु काआ सूलाहिण्णा व्व दोसन्ति ॥ ६३ ॥
[ धाराधाव्यमानमुखा लम्बितपक्षा निकुञ्चितग्रीवाः । वृतिवेष्टनेषु काकाः शूलाभिन्ना इव दृश्यन्ते ।। ]
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जिनके पंख लटक गये हैं और जिनके मुख जलधारा से घुल चुके हैं, अपनी ग्रीवा टेढ़ी कर बाड़ पर बैठे हुये वे कौए, मानो शूली पर चढ़ा दिये गये हैं ।। ६३ ।।
ण वि तह अणालवती हिअअं दूमेइ माणिणी अहिअं । जह दूरविअम्भि अगरु अरोसमज्झत्थ भणिएहि ॥ ६४ ॥
[ नापि तथा नालपन्ती हृदयं दुनोति मानिन्यधिकम् । यथा दूरविजृम्भितगुरुक रोषमध्यस्थभणितैः ॥ ]
यह मानिनो मुझसे न बोल कर उतना दुःख नहीं पहुँचाती, जितना अत्यधिक बढ़े हुये कोप से पूर्ण उदासीन वचनों से ॥ ६४ ॥
गन्धं अग्धाअन्तअ पक्ककलम्बाणं वाहभरिअच्छ ।
आससु पहिअजुआणअ घरिणिमुहं माण पेच्छिहिसि ॥ ६५ ॥
पक्व कदम्बानां
[ गन्धमाजिघ्रन् बाष्पभृताक्ष । आश्वसिहि पथिकयुवन् गृहिणीमुखं मा न प्रेक्षिष्यसे ॥ ]
नवयुवक बटोहो ! पके कदम्बों की गन्ध सूंघते ही तुम्हारी आँखें सजल हो गई, धीरज रखो तुम्हें प्रिया का मुख अवश्य देखने को मिलेगा ।। ६५ ।। गज्ज महं चिअ उबर सव्वत्थामेण लोहहिअअस्स । जलहर लम्बालइअं मा रे मारेहिसि वराई ॥ ६६ ॥ [ गर्ज ममैवोपरि सर्वस्थाम्ना लोहहृदयस्य । जलधर लम्बालकिकां मा रे मारयिष्यसि वराकीम् ॥ ] अरे मेघ ! तुम मुझ कठोर हृदय के ऊपर जितना गरज सको, गरजो किन्तु विरहव्यथा से जिसकी अलकें बिखर गई हैं, मेरी उस बेचारी प्रिया को कहीं मार न डालना ॥ ६६ ॥
पडूमइलेण छीरेक्कपाइणा दिण्णजाणुवडणेण । आनन्दिज्जइ हलिओ पुत्तेण व
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सालिछेत्तेण ॥ ६७ ॥
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