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________________ गाथासप्तशती यद्यपि खलु बालिका तथापि खलु मा पुत्रि नग्निका भ्रम । छेका नगरयुवानो मातरं दुहितरि लक्षयन्ति ।। नग्न घूमने वाली किसी बालिका को मना करनेवाली प्रौढा महिला की परिहासोक्ति है। अर्थ-हे पुत्रि ! यद्यपि बालिका हो तथापि तुम नग्न होकर मत फिरा करो। नगर के विदग्ध (चतुर एवं रसिकों ) पुत्री में माता को लक्षित कर लेते हैं। ( अर्थात् अविकसित अंगों वाली बालिका को भी नवयुवती के रूप में देखते हैं । ) १०. दइए दुमसु तुमं चिअ मा परिहर पुत्ति ! पढमदुमि ति । कि कुड्डं णिअमुहअंदकंतिदुमि ण लक्खेसि ।।७४१॥ अनुवादक ने इसकी संस्कृतच्छाया लिखने में असमर्थता व्यक्त की है । गाथा का अनुवाद इस प्रकार किया है __ "दयित के लिये तू ही सफेदी कर, हे पुत्रि ! पहले की सफेदी को मत छोड़ ! क्या अपने मुखचन्द्र की कान्ति से सफेद दीवार को नहीं देखती।" यह अनुवाद ठीक नहीं है । दइए शब्द संस्कृत ले दयित शब्द का सप्तम्यन्त रूप नहीं, स्त्री लिंग में सम्बोधन का रूप है। यदि वह दयित ( प्रिय ) का सप्तम्यन्त रूप भी हो तब भी उसका चतुर्थ्यन्त अर्थ संभव नहीं है। यहाँ सम्बोधन कारक का रूप दयिते ( प्रिये ) सम्बोध्य के प्रति हार्दिक स्नेह का अभिव्यंजक है। गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगीदयिते धवलय त्वमेव मा परिहर पुत्रि प्रथमधवलितमिति । किं कुड्यं निजमुखचन्द्रकान्तिधवलितं न लक्षयसि ॥ नायिका घर में सफेदी कर रही थी। दीवार के जिस भाग में अभी सफेदी करना शेष था वह भाग भी नायिका की मुखचन्द्रचंद्रिका से शुभ्र होकर ऐसा लग रहा था जैसे इसमें भी सफेदी कर दो गई है। अतः नायिका उस भाग को बिना सफेदी किये ही छोड़ दे रही थी। यह देखकर उसकी सास कहती है हे प्रिय ( दयिते ) पुत्रि! सफेदी करो। उस भित्ति-भाग में सफेदी की जा चुकी है—यह सोचकर तुम उसे छोड़ मत देना। क्या तुम यह लक्षित नहीं कर पा रही हो कि तुम्हारे मुखचन्द्र की कान्ति से दीवार सफेद हो गई है। यहाँ 'तंच्चेअ' ( तुम्हीं ) शब्द में यह व्यंग्य है कि दीवार के किसी भाग को बिना सफेदी किये हो छोड़ देना तो कामचोर नौकर का काम है। तुम तो गृहस्वामिनी हो, तुम उसे मत छोड़ देना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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