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गाथासप्तशती द्वितीयपाद की संस्कृतच्छाया यों होगी:स्थूलस्तनि ! करिकरोरु तनुमध्ये ।
कह (कथं ) का अर्थ 'कैसे' नहीं क्यों है । इसमें मान के प्रकार की नहीं, हेतु की जिज्ञासा है । तरुणियों के स्तनों का स्तोकभाव ( लघुत्व ) प्रशस्य नहीं है । उनकी पीनता ( स्थूलता) में ही लावण्य है ।
गाथार्थ हे चंचल नयने.! हे चन्द्रवदने ! हे पोनपयोधरे ! हे करिकरोरु ! हे तनुमध्ये ! (क्षीण कटिवाली ) शिशिर की दीर्घ रात्रि ( अकेले ) नहीं बीत रही है, तेरा मान क्यों है । ( अर्थात् तू क्यों रूठ गई है । ) ६९-कज्जं विणा वि कअमाणडंबरा पुलअभिण्ण सव्वंगी। ।
उज्जल्लालिंगणसोक्खलालसा पुत्ति ! मुणिआसि ॥९२३॥ कार्यं विनाऽपि कृतमानडम्बरा पुलकभिन्नसर्वाङ्गी।
उज्ज्वलालिंगनसौख्यलालसा पुत्रि ! ज्ञाताऽसि ॥
"कार्य के बिना भी मानाडम्बर किये हुई रोमांचित शरीर वाली है पुत्रि ! मुझे मालूम हो गया कि तुझे आलिंगन सुख की तीव्र लालसा है।"
गाथा में कार्य शब्द हेतुवाचक है। 'उज्जल्ला' देशी शब्द है। उसका अर्थ है :-बलात्कार ( बलपूर्वक की जाने वाली क्रिया' ) महत्वपूर्ण होने पर भी इस शब्द का उपयोग अनुवाद में नहीं किया गया है । 'उज्जल्लालिंगण सोक्खलालसा' नायिका का साभिप्राय विशेषण है । उसका अर्थ है :-बलाद् आलिंगन के सुख को लालसा ( इच्छा ) करने वालो ।
( उज्जल्लाए बलक्कारेण जं आलिंगणसोक्खं तम्मि लालसा जिस्सा ) गाथा का अर्थ इस प्रकार है :- ( कोई प्रौढ़ा नायिका से कहती है ) तू बिना कारण के ही मान का आडम्बर ( प्रदर्शन या दिखावा ) कर रही है, तेरा सर्वांग पुलकों से परिव्याप्त है। हे पुत्रि ! मैंने जान लिया है कि तुझे ( पति के द्वारा कृत) बलपूर्वक आलिंगन के सुख की इच्छा हो गई है।
नायिका सर्वदा नायक के अनुकूल रहती थी, अतः एक ही प्रकार के आलिंगन से, ऊब चुकी थी। उसकी लालसा थी कि नायक कभी बलपूर्वक भी आलिंकरे । इसीलिए उसने कृत्रिम मान का नाटक किया था। 'पुलकभिन्नसर्वाङ्गी' पद मान की कृत्रिमता का व्यंजक होने के साथ-साथ आलिंगन-सुख के अभिलाष का भी प्रत्यायक है । वास्तविक मान में रोमांच नहीं होता। १. पाइअसहमहण्णव
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