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________________ पञ्चम शतकम् ११५ बहुविहविलाससरसिए सुरए महिलाण को उवज्झाओ। सिक्खइ असिक्खिआइँ वि सव्वो गेहाणुबन्धेण ॥ ७७ ॥ [बहुविधविलाससरसिके सुरते महिलानां क उपाध्यायः । शिक्ष्यते अशिक्षितान्यपि सर्वः स्नेहानुबन्धेन ।।] नाना प्रकार के विलासों से जो रसमय हो जाता है, उस सुरत में महिलाओं का कौन शिक्षक हो सकता है ? सभी अज्ञात कलाएँ प्रणय के अनुरोध से सीख ली जाती हैं ॥ ७७ ॥ वण्णवसिए विअत्यसि सच्चं विअ सो तुए ण संभविओ। ण हु होन्ति तम्मि दिढे सुत्थावत्थाई अङ्गाई ॥७८ ॥ [वर्णवशिते विकत्थसे सत्यमेव स त्वया न सम्भावितः । न खलु भवन्ति तस्मिन्दृष्टे स्वस्थावस्थान्यङ्गानि ॥] गुणों का वर्णन सुनकर ही वशीभूत होने वाली ! झूठ बोल रही हो, तुमने उन्हें देखा हो नहीं है । उन्हें देख लेने पर शरीर पर अपना अधिकार नहीं रहता ।। ७८॥ आसण्णविआहदिणे अहिणववहुसङ्गमस्सुअमणस्स । पढमघरिणीअ सुरअं वरस्स हिअए ण संठाइ ॥ ७९ ॥ [ आसन्नविवाहदिने अभिनववधूसङ्गमोत्सुकमनसः । प्रथमगृहिण्याः सुरतं वरस्य हृदये न संतिष्ठते ॥] विवाह-दिवस निकट आते ही नववधू के समागम के लिए उत्सुक युवक के मन से पहली पत्नी की रति-लीला का आनन्द तिरोहित हो जाता है ।। ७९ ।। जइ लोकणिन्दिअं जइ अमङ्गलं जइ विमुक्कमज्जाअं। पुप्फवइदंसणं तह वि देह हिअअस्स णिवाणं ॥ ८० ॥ [ यदि लोकनिन्दितं यद्यमङ्गलं यदि विमुक्तमर्यादम् । पुष्पवतोदर्शनं तथापि ददाति हृदयस्य निर्वाणम् ॥] यद्यपि पुष्पवतो का दर्शन निन्दित, मर्यादा-रहित एवं अमंगलकारक है भी हृदय को तृप्त करता है ।। ८० ॥ जइ ण छिवसि पुष्फवई पुरओ ता कीस वारिओ ठासि छित्तोसि चुलचुलन्तेहिं धाविउण अॅम्ह हत्थेहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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