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गाथासप्तशती
पूर्वार्धगत मयूर - शिखण्ड वाचक 'पेहुणों' से उत्तरार्धगत श्वान वाचक 'सुणहो' का अन्वय नहीं हो सकता क्योंकि इन दोनों प्रथमान्त पदों का सामानाधिकरण्य लोकविरुद्ध है । प्रथमान्त होने के कारण उक्त पद षष्ठ्यन्त 'णिग्गयस्स' से भी अन्वित नहीं हो सकता । अन्वय के लिये उस स्थान पर कोई षष्ठ्यन्त शब्द अपेक्षित है । यदि 'गो' को षष्ठी का सूचक मानें तो प्रातिपदिक ( मूलशब्द ) पेहि ( प्रेक्षिन् ) ठहरता है, क्योंकि 'पेहु' कोई सार्थक शब्द नहीं है । यह 'पेहि ' शब्द भी कर्म के अभाव में निरर्थक है । अतः उसके पूर्व विकृत रूप में जो वर्णन उपलब्ध है उसी में कर्म को ढूँढ़ने का प्रयास करना है । यदि 'कुडलि ध्व' को मिलाकर 'कुडलिव्व' पढ़ें और 'पेहिणो' से जोड़कर एक समस्तपद बना लें तो खोया हुआ कर्म मिल जायेगा । इस प्रकार एक सार्थक शब्द 'कुडलिव्वपेहिणी' ( कुटलेप्यप्रक्षिणः - कुटस्य गृहस्य लेप्यं भित्ति प्रेक्षते पश्यतीति कुटलेप्यप्रक्षी तस्य ) बन जायेगा । इसका अर्थ है- -घर की दीवार ( भित्ति ) को देखने वाले का । ' चडुवस्स' में चतुर्थ्यर्थक षष्ठी है । चडुव (चटुक) का अर्थ पेट है, परन्तु वह प्रकरणानुसार जीविका के अर्थ में प्रयुक्त है ।
जणरंजणिग्गहो में 'णि' का इकार अनावश्यक है। सार्थक पद जणजनस्य जनानां वा रञ्जने प्रीडने आग्रहो यस्य,
जगहो ( जनरञ्जनाग्रहः अर्थात् लोगों को प्रसन्न रखने का आग्रही ) है । गाथा का परिमार्जित पाठ यह होगा -
सुहय ! सुहं चिय कुडलिव्वपेहिणो णिग्गयस्स चडुवस्स । जणरञ्जणग्गहो ते घरम्मि सुणहो अतिहिवंतो || और संस्कृतच्छाया यों होगी
सुभग ! शुभमेव कुटलेप्यप्रेक्षिणो निर्गतस्योदराय । जनरञ्जनाग्रहस्ते गृहे शुनकोऽतिथिवान् ॥
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उसने एक कुत्ता पाल रखा था । वह
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गाथा में जिस गृहपति को सम्बोधित किया गया है उसे प्रत्येक दिन घर पर पत्नी को अकेली छोड़कर जीविकोपार्जन के लिये बाहर जाना पड़ता था । स्त्री के दुश्चरित्र हो जाने की आशंका से किसी भी अपरिचित मनुष्य को घर में नहीं की स्त्री किसी तरुण के चंगुल में फँस गई । दुष्ट कुत्ते को अपने अनुकूल बना लिया । अब वह उक्त तरुण के आने पर दुम हिला कर उसका भरपूर स्वागत करने लगा । एक दिन जब गृहपति काम से लौट कर घर की दीवारों की ओर देख रहा था, तभी उसकी पड़ोसिन कह पड़ी
घुसने देता था तरुण ने खूब
फिर भी गृहपति खिला-पिला कर
१. लिव्व का अर्थ लेप्य ( भित्ति )
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- पाइयसद्द्द्द्महृष्णव
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