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सप्तमं शतकम्
एक्कल्लमओ दिट्ठोअ मइअ तह पुलइओ सअह्राए । पिअजाअस्स जह धणं पडिअं वाहस्स हत्थाओ ।। १८ ।
[ एकाकी मृगो दृष्ट्या मृग्या तथा प्रलोकितः सतृष्णया । प्रियजायस्य यथा धनुः पतितं व्याधस्य हस्तात् ॥ ]
मृगी बिछुड़ते हुए अकेले मृग को तृपित नयनों से इस प्रकार निहारने लग कि अपनी पत्नी से प्रेम करने वाले व्याध के हाथ से धनुष गिर पड़ा ।। १८ ।। णलिणीसु भमसि परिमलसि सत्तलं मालई पि णो मुअसि । तरलत्तणं तुइ अहो महुअर जइ पाडला हरइ ।। १९ ॥ [ नलिनीषु भ्रमसि परिमृद्गासि सप्तलां मालतीमपि नो मुञ्चसि । तरलत्वं तवाहो मधुकर यदि पाटला हरति ॥ ]
अरे मधुकर ! तुम कभी नलिनी पर मड़राते हो, कभो नवमालिका का उपमर्दन करते हो, और मालती को भी नहीं छोड़ते । यदि कहीं पाटला से भेंट हो जाती तो वह तुम्हारी यह सारी चंचलता दूर कर देती ॥ १९ ॥
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दो अङगुलअकवालअपिणद्धसविसेसणील कञ्चुइआ । दावेइ थणत्थलवण्णिअं व तरुणी जुअजणाणं ॥ २० ॥ [ द्वयंगुलककपाटपिनद्धसविशेषनील कञ्चुकिका | दर्शयति स्तनस्थलवणिकामिव तरुणि युवजनेभ्यः ॥ ]
जिसकी कसी हुई नोली कंचुकी में दो अंगुल का द्वार बना हुआ है वह युवत मानों युवको को स्तनों को वानगी दिखला रही है || २० ||
रक्खे पुत्तअं मत्थएण ओच्छोअअं पडिच्छन्ती । अंसुहिं पहिअघरिणी ओल्लिज्जन्तं ण लक्खेइ ॥ २१ ॥ [ रक्षति पुत्रकं मस्तकेन पटलप्रान्तोदकं प्रतीच्छन्ती । अभिः पथिकगृहिणी आर्द्रीभवन्तं न लक्षयति ॥ ]
परदेशी की प्रिया चूते हुए छप्पर का पानी अपने शिर पर रोककर नन्हें बालक को रक्षा करती है किन्तु वह यह नहीं जान पातो कि उसका शिशु उसीके आँसुओं से भींग गया है । ।। २१ ।
सरए सरम्मि पहिआ जलाइँ कन्दोट्टसुरहिगन्धाई । धवलच्छाइँ सअण्हा पिअन्ति दइआणं व मुहाई ॥ २२ ॥
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