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गाथासप्तशती दरवेविरोरुजुअलासु मउलिअच्छीसु लुलिअचिहुरासु । पुरिसाइरीसु कामो पिआसु सज्जाउहो वसइ ॥ १४ ॥
[ ईषद्वेपनशीलोरुयुगलासु मुकुलिताक्षोषु लुलितचिकुरासु।
पुरुषायितशीलासु कामः प्रियासु सज्जायुधो वसति ।। ] जिनकी दोनों जांघे कुछ-कुछ कम्पित हो रही हैं, आँखें मुकुलित हो गई हैं एवं केश बिखर गये हैं, उन विपरीत रतशाला तरुणियों के प्रति काम का धनुष सदा चढ़ा रहता है ॥ १४ ॥ जं जं ते ण सुहाअइ तं तं ण करेमि जं ममाअत्तं । अह चिअ ज ण सुहामि सुहअ तं किं ममाअत्तं ॥ १५ ॥ [ यद्यते न सुखायते तत्तन्न करोमि यन्ममायत्तम् ।
अहमेव यन्न सुखाये सुभग्र तत्कि ममायत्तम् ॥] जो तुम्हें पसन्द नहीं हैं, वह मैं न करूंगी क्योंकि यह मेरे ही वश की बात है । किन्तु प्राणेश यदि मैं हो तुम्हें अच्छी न लगूं तो इसमें मेरा वश ही क्या
वावारविसंवा सअलावअवाणं कुणइ हअलज्जा । सवणाणं उणो गुरुसंणिहे वि ण णिरुज्झइ णिओअं॥ १६ ॥ [ व्यापारविसंवादं सकलावयवानां करोति हतलज्जा।
श्रवणयोः पुनर्गुरुसंनिधावपि न निरुणद्धि नियोगम् ॥] यह पापिन लज्जा, शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का व्यापार तो बन्द कर देती है किन्तु गुरुजनों के समक्ष भी कानों को खुला ही छोड़ देती है ॥ १६ ॥ कि भणह मं सहीओ मा मर दीसिहइ सो जिअन्तीए । कजालाओ एसो सिणेहमग्गो उण ण होइ ॥ १७॥
[कि भणथ मां सख्यो मा म्रियस्व द्रक्ष्यते स जीवन्त्या।
कार्यालाप एष स्नेहमार्गः पुनर्न भवति ॥] साखियों ! तुझसे क्या कह रही हो ? "डरो मत जीवित रहोगी तो उन्हें अवश्य देख लोगी" लेकिन यह तो प्रयोजन की बात है। स्नेह का मार्ग नहीं है ॥ १७॥
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