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पुत्र के उत्पन्न होने की सूचना भी मिली। श्री कृष्ण जी तीनों सुखद समाचारों को एक साथ सुन कर विचार करने लगे कि किस का उत्सव प्रथम मनाया जाये, वे धर्मात्मा थे, वे धार्मिक कार्य को विशेषता देते हुए अपने परिवार, चतुरंगी सेना और प्रजा सहित सबसे प्रथम श्री अरिष्टनेमि के केवल ज्ञान की वन्दना करने गये और उनकी तीन परिक्रमाएँ देकर भक्तिपूर्वक नमस्कार' कर इस प्रकार स्तुति करने लगे :
"हे नाथ ! आप धर्मचक्र चलाने में चक्री के समान हो, केवलज्ञान रूपी सूर्य से लोकालोक का प्रकाशित कर रहे हो, समस्त संसार को रत्नत्रयरूपी मोक्ष मार्ग दिखाने वाले हो, आप देवों के देव और जगद्गुरु हो, आप देवतागण द्वारा पूज्य हो, भला हमारी क्या शक्ति जो
आपकी भली प्रकार स्तुति कर सकें।" द्वारकानगर में भगवान् नेमिनाथ जी का उपदेश होरहा था--"कल्पवृक्ष मांगने पर और चिन्तामणि विचार करने पर ही इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं परन्तु धर्म बिना मांगे और बिना इच्छा करे सुख प्रदान करता है। धर्म का साधन युवावस्था में ही हो सकता है । इसलिये सच्चे सुख के अभिलाषियों को भरी जवानी में जिन-दीक्षा लेना उचित है ।" भगवान् के उपदेश को . When the Shamosara of Lord Nemi was reported to
have come near Diwarka Ji, Lord Krishna went to see Him with Yadovas, his mother, the Prices and the princesses of his family. Lord Krishna in respect of Lord Nemi Nath, leaving aside his royal robe etc entered the Shamosarn, and bowed down to Lord Arisht Nemi. -Prof. Dr. H. S. Bhattacharya: Lord Arisht Nemi P.58. २-३. श्री नेमिपुराण पृ० ३०६-३०७ ।
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