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ज्ञान, चरित्र, तपरूप चारों आराधपाओं का सेवन करके समाधिमरण से प्राणों का परित्याग होने के कारण महासुखों के प्रदान करने वाले महाशुक्र नाम के दसवें स्वर्ग में महान् ऋद्धि-धारी देव का भी देव हुआ।
चक्रवर्तीपद
आज का संसार भी स्वीकार करता है कि जैनी अधिक धनवान् और आदर सत्कार वाले हैं। इसका कारण उनका त्याग, अहिंसा पालन और अर्हन्त भक्ति है । जब थोड़ी सी अर्हन्त पूजा करने, मोटे रूप से हिंसा को त्यागने तथा श्रावक धर्म को पालने से अपार धन, आज्ञाकारी सन्तान अतिसुन्दर स्त्री, महायश और सतकार, निरोग शरीर की बिना इच्छा के भी तृप्ति हो जाती है तो भरपूर राज-पाट और संसारी सुख प्राप्त होने पर भी जो इनको सम्पूर्ण रूप से बिना किसी दबाव के त्याग करके भरी जवानी में जिन दीक्षा लेकर कठोर तप करते हैं, उन्हें इस लोक में राज्य सुख
और परलोक में स्वर्गीय सुख की प्राप्ति में क्या सन्देह हो सकता है ? मन्द कषाय होने और मुनि धर्म पालने का फल यह हुआ कि स्वर्ग की आयु समाप्त होने पर मैं विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम के देश में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी सुब्रता के प्रियमित्रकुमार नाम का चक्रवर्ती सम्राट हुआ। ६६ हजार रानियां, ८४ लाख हाथी, १८ करोड़ घोड़े, ८४ हजार पैदल मेरे पास थे । ६६ करोड़ ग्रामों पर मेरा अधिकार था । ३२ हजार मुकुट बन्द राजा और १८ हजार मलेच्छ राजा मेरे आधीन थे। मनबांछित फल की प्राप्ति करा देने वाले १४ रत्न' और नौं निधियाँ जिनकी रक्षा देव करते थे, मैं स्वामी था।
१-२. विस्तार के लिये भ० महावीर का आदर्श जीवन, पृ० १०६-११० ।
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