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• ४. गर्मी की परीपह-गर्म लू चल रही हो, जमीन अङ्गारे के
समान तप रही हो, दरिया का पानी तक सूख गया हो हम ठण्डे तहखानों में पङ्खों के नीचे खसखस की टट्टियों में बर्फ के ठण्डे और मीठे शबत पी कर भी गर्मी-गर्मी चिल्लाते हों, उस समय भी श्री वर्द्धमान सूरज की तेज किरणों में आग के समान तपते हुये पर्वतों की चोटियों पर नग्न शरीर बिना आहर पानी के चरित्र मोहिनीय कर्म को नष्ट करने के हेतु महाघोर तप करते थे। ५. डांस व मच्छर आदि की परीषह-जहां हम मच्छरों तक से बचने के लिये मशहरी लगाकर जालीदार कमरों में सोते हैं, यदि खटमल, मक्खी , मच्छर, कीड़ी तक काट ले तो हा-हा कार करके पृथ्वी सिर पर उठा लेते हैं, वहां वर्द्धमान महावीर सांप, बिच्छु, कानखजूरे, शेर, भगेरे तक की परवाह न करके भयानक वन में अकेले तप करते थे । महाविष भरे सर्पो ने काटा, शिकारी कुत्तों ने शरीर को नोच दिया, शेर, मस्त हाथी आदि महाभयानक पशुओं ने दिल खोल कर सताया, परन्तु वेदनीय कर्म का फल जान कर महावीर स्वामी समस्त उपसर्ग को सहन करके ध्यान में लीन रहते थे। ६. नग्नता परीषह-जहां नष्ट होने वाले शरीर की शोभा तथा विकारों की चंचलता को छिपाने के लिये हम अनेक १, जब तक बालक रहता है उसमें लज्जा भाव उत्पन्न नहीं होता लेकिन जब बड़ा
हो जाता है तो लज्जा का अनुभव करने लगता है। यह लज्जाभाव ही है कि जो मनुष्य को नग्न रहने से रोकता है कपड़ा पहिनने से हम अपना शरीर नहीं ढांपते बल्कि दोषों को ढांपते हैं। अगर कोई मनष्य ऐसा वीर है कि अपनी इन्द्रिय की चंचलता को वश में रखे तो उसे कपड़ा पहिनने की आवश्यकता नहीं । दिगम्बर (नग्न) रहना शुद्ध आत्मा होने की दलील है। -श्री पं० रामसिंह जी सहायक संपादक दैनिक हिन्दुस्तान नई देहली, हिन्दी जैन गजट २८ अक्तूबर १६४३ पृ० २२स।
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