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१०. आसन परीषह-जहां हम एक आसन थोड़ी देर भी सरलता से नहीं बैठ सकते, भगवान महावीर महीनों-महीनों एक आसन एक ही स्थान पर तप में लीन रहते थे । जिस समय तक की प्रतिज्ञा कर लेते थे अधिक से अधिक उपसर्ग और कष्ट आजाने पर भी वे आसन से न डिगते थे। ११. शय्या परीषह-जहां हम पलङ्ग के जरा भी ऊँचे-नीचे हो जाने पर व्याकुल हो जाते हैं। सोने-चांदी के पलँगों, रेशमी
और मखमली गद्दों तथा सुगन्धित पुष्पों की सेज पर सोने वाले वर्द्धमान महावीर कठोर भूमि पर बिना किसी वस्त्र तथा सेजों
आदि के नग्न शरीर वेदनीय कर्म को नष्ट करने के हेतु रात्रि को भी ध्यान में मग्न रहते थे। १२. आक्रोश परीषह-जहां हम साधारण बातों पर क्रोधित होजाते हैं, वहां बिना किसी कारण के फवतियां उड़ाये जाने और कठोर शब्द सुनने पर भी वर्द्धमान महावीर किसी प्रकार का खेद तक न करते थे। १३. वध परीषह-दुष्टों ने अज्ञानता, ईर्षा तथा उनके तप की परीक्षा के वश श्री वर्द्धमान महावीर को लोहे की जंजीरों से जकड़ दिया', लाठियों से मार-पीट की, उनके दोनों पांवों के बीच में चुल्हे के समान अग्नि जलाकर खीर पकाई', दोनों कानों में कीलें ठोंक दी', परन्तु श्री वर्द्धमान महावीर इतने दयालु और क्षमावान् थे कि तप के प्रभाव से इतनी ऋद्धियां प्राप्त हो जाने पर भी कि वे इन सब कष्टों को सहज ही में नष्ट करदें, वेदनीय कर्मों की निर्जरा के हेतु, समस्त उपसर्गों को वे सरल हृदय से सहन करते थे।
१-२. उर्दू मिलाप, महावीर एडिशन (२६ अक्तूबर १२४०) पृ० ११, ४६, ५३ । ३-४. जैन ग्रन्थमाला (रामस्वरूप जैन स्कूल नामा) भा० १ पृ० ५७ ।
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