Book Title: Vardhaman Mahavir
Author(s): Digambardas Jain
Publisher: Digambardas Jain

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Page 546
________________ ર ‘अर्हन्त' समस्त त्यागियों में मुख्य हैं' । स्कन्ध पुराण के अनुसार, "वही जिह्वा है जिससे जिनेन्द्रदेव का स्तोत्र पढ़ा जाये, वही हाथ है जिस से जिनेन्द्र की पूजा की जावे, वही दृष्टि है जो जिनेन्द्र के दर्शनों में तल्लीन हो और वही मन है जो जिनेन्द्र में रत हो । विष्णु पुराण के अनुसार, "अर्हन्त मत (जैनधर्म) से बढ़ कर स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला और कोई दूसरा धर्म नहीं है" । मुद्राराक्षस नाटक में अर्हन्तों के शासन को स्वीकार करने की शिक्षा है । महाभारत में जिनेश्वर की प्रशंसा का कथन है" । मुहूर्त चिन्तामणि नाम के ज्योतिष ग्रन्थ में 'जिनदेव' की स्थापना का उल्लेख है ' । ऋग्वेद में लिखा है, "हे अर्हन्तदेव ! आप विधाता हैं, अपनी बुद्धि से बड़े भारी रथ की तरह संसार चक्र को चलाते हैं। आपकी बुद्धि हमारे कल्याण के लिये हो । हम आपका मित्र के समान सदा संसर्ग चाहते हैं । अर्हन्तदेव से ज्ञान का अंश प्राप्त करके देवता पवित्र होते हैं ' । हे अग्निदेव ! इस वेदी पर सब मनुष्यों से पहले अर्हन्तदेव का मन से पूजन और फिर उनका आह्वान करो। पवनदेव, अच्युतदेव, इन्द्रदेव और ६ १ - ४ इसी ग्रन्थ के पृ० ७०, ४६, ४५, ४७ | ५ " कालनेमि निहावीरः शौरि शूरि जिनेश्वरः" (अनु. पर्व) . १४९, । ६ शिवोनृ युग्मेद्वितनौ च देव्यः क्षुद्राश्चरे सर्व इमेस्थिरक्षे । पुष्येगृहाविघ्न पयक्ष सर्प भूतादयोत्ये श्रबणे जिनश्च ||६३ || नक्षत्र २ ७ इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव संमहेमा मनीषया । भद्रादिनः प्रमतिरस्य संद्यग्ने सख्ये मारिषामावयं तत्र ॥ - ऋग्वेद मं० १, अ० १५, सू०, ६४ ८ तावृधन्तावनु द्यून्मर्ताय देवावदभा । अर्हन्ताचित्पुरो दधेऽशेव देवावर्तते ॥ ऋ० मं० ५ ० ६, सू० ८६ ५२० ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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