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अरबों-खरबों वर्षों में अधिक से अधिक सोलह बार मनुष्य जन्म मिलता है और यदि इनमें मोक्ष की प्राप्ति न हुई तो नियमानुसार यह जीव फिर निगोद में अवश्य चला जाता है, जहाँ से फिर निकल कर आना इतना दुर्लभ है जितना चिन्तामणि रत्न को अपार सागर में फेंक कर फिर उसको पाने की इच्छा करना । जिस प्रकार मूर्ख पारस पथरी की कीमत न जान कर उसे फेंक देता है, उसी प्रकार धर्म पालने पर नौकरी नहीं लगी, मुकदमा नहीं जीता गया, सन्तान नहीं हुई, बीमारी नहीं गई, धन नहीं मिला तो धर्म छोड़ना पारस पथरी फेंकने के समान है । धर्म अवश्य अपना सुन्दर फल देगा, यह तो पहले पाप-कर्मों की तीव्रता है जो धर्म पालने पर भी तुरन्त संसारी सुख नहीं मिलते । इसमें धर्म का दोष नहीं । श्रावक-धर्म' पालने से धन-सम्पत्ति, सुन्दर स्त्रियां, आज्ञाकारी पुत्र, निरोग शरीर तथा राज-सुख, चक्रवर्ती पद और स्वर्ग की विभूतियां बिना मांगे आप से आप ही मिल जाती है और मुनि-धर्म पालने से समस्त संसारी दुःखों से मुक्त होकर यही संसारी जीवात्मा सच्चा आनन्द, अविनाशी सुख और
आत्मिक शान्ति का धारी सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा तथा सर्वशक्तिमान परमात्मा तथा मोक्ष प्राप्ति की सिद्धि अवश्य हो जाती है।'
१ i House Holder's Dharama. -/12/- Jain Parishad Delhi. __ii उंदू जैन मतसार /8/- J. Mitar Mandel, Delhi.
iii रत्नकरण्ड श्रावकाचार ॥1) उग्रसैन एडवोकेट, रोहतक २ Sannyas Dharam and Practical Dharam 1-8 each from
Jain Parishad, Dariba Kala, Delhi 3. The Salient feature of Jainism is real existence of individual soul having capacity of rising to God hood. -Prof. Prithvi Raj : VOA. Vol. I. Part 6. P. 11.
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