Book Title: Vardhaman Mahavir
Author(s): Digambardas Jain
Publisher: Digambardas Jain

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Page 492
________________ वीर-मन्दिर को ११६२ में बहुत सी सम्पत्ति भेंट की थी' । अल्हणदेव राजपाट को त्याग कर जैनसाधुहोगये थे। इनके इस दान के सम्बन्ध में टाड साहब को १२२८ ई० का लिखा हुआ एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ, जिसका कुछ अंश निम्न प्रकार है: "सर्वशक्तिमान जैन के ज्ञानकोश ने मनुष्य जाति की विषयवासना और ग्रंथि मोचन कर दी। अहंकार, प्रात्मश्लाघा, भोगेच्छा. क्रोध और लोभ स्वर्ग, मर्त्य और पाताल को विभिन्न कर देते हैं महावीर (जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थकर) प्रापको सुख से रक्खें"। अति प्राचीनकाल में महान चौहानजाति समद्र के तट तक राज्य करती और नादोल लक्ष्य द्वारा शोसित होती थी उन्हीं को बारहवी पीढ़ीमें उत्पन्न अलनदेव ने कुछ काल राज्य करके इस संसार को प्रसार, शरीर को अपवित्र समझ कर अनेक धर्म शास्त्रों का अध्ययन करके वैराग्य ले लिया। इन्होंने ही श्रीमहावीर स्वामी के नाम पर मन्दिर उत्सर्ग किया और वत्ति निर्धारित की और यह भी लिखा कि-"यह धन सुन्दरगाछा (प्रोसवाल जैनियों) बशपरम्परा को बरावर मिलता रहे । जब तक सुन्दरगाछा लोगों के वश में कोई जीवित रहेगा तबतक के लिपे मैं नेयह . वृत्ति निर्धारित की है । इसका जो कोई स्वामी होगा मैं उसका हाथ पकड़ कर कहता हूं कि यह वृत्ति वंशपरम्परा तक चली जावे । जो इस बृत्ति को दान करेगा वह साठसहस्त्र वर्ष तक स्वर्ग में बसेगा और जो इस वृत्ति को तोड़ेगा वह साठसहस्र वर्ष तक नर्क में रहेगा।" ____ निश्चित रूप से लाखा बड़े योद्धा और देश भक्त थे । टाड साहब के शब्दों में, “महमूद गजनी अजमेर लूटने को आया तो इन चौहानों ने ही उसे युद्ध में घायल किया था जिसके कारण वह नादौल की तरफ भाग गया था । लाखा के पुत्र दादराव ने तो १. In 1162 he (Alhandevea) made a grant in favour of the temple of Jina Mahavira, at Nadara Tank: ''ictionary of Jain Biography (Arrah)) P. 43. २-३. जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन 'पृ० ६८-. ४-५. टाड राजस्थान भा० २. अध्याय २७ पृ० ७४६ । ४६६ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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