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टाड साहब के शब्दों में न केवल भंडारी, राजमन्त्री, दण्डनायक ही जैनी थे, बल्कि वीर राजपूत राणाओं के सेनापति तक दायित्वपूर्ण और उच्च पदों पर परम्परा से जैनी नियुक्त किये जाते थे। वास्तव में जैन वीरों और राजपूतों का चाँद-चाँदनी जैसा सम्बन्ध रहा है और उनकी राजधानी चित्तौड़ में प्राचीन राजमहलों के निकट जैन मन्दिरों का होना स्वयं उनका अनुराग जैनधर्म में सिद्ध करता है।
२८-सिक्खों के पूज्य गुरु श्री नानकदेव जी (१४६६१५३६ ) अहिंसा के इतने अनुरागी थे कि उनका कहना था, "जब कपड़े पर खून की एक छींट लग जाने से वह अपवित्र हो जाता है तो जो खून से लिप्त मांस खाते हैं उनका हृदय कैसे शुद्ध
और पवित्र रह सकता है"। श्री गुरु गोविन्दसिंह जी की तलवार केवल दुखियों की रक्षा और हिंसा को मिटाने के लिये थी। महाराजा रणजीतसिंह ने काबुल के प्रथम युद्ध के समय अंग्रेजों से जो अहदनामा किया था, उसमें इन्होंने अंग्रेजों से यह शर्त लिखवाई थी, “जहाँ सिक्खों और अंग्रेजों की फौज इकट्ठी रहेगी वहाँ गौवध नहीं होगा"। महाराजा रणजीतसिंह के दरबारियों के शब्दों में सिक्ख गौ-भक्षक नहीं हो सकता। ___२६-मुस्लिम बादशाह दिगम्बर मुनियों के इतने अधिक संरक्षक थे कि जैनाचार्यों ने उनको “सूरित्राण" प्रकट किया है, जिसके बिगड़े हुए शब्द 'सुल्तान' के नाम से मुसलमान बादशाह
आजतक प्रसिद्ध हैं। १ राजपूताने के जैन वीरों का इतिहास, पृ० ४२, ३४२ । २ इसी ग्रन्थ का पृ. ६७-६८ । ३ दैनिक उर्दू वीरभारत (१६ मई १९४३) पृ० ३-५ । ४ वीर (१ मार्च १९३२) भ० ६, पृ० १५३ ।
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