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दिनों अर्थात् प्रत्येक दोयज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी को तैल के कोल्हू, शराब की भट्टी आदि हिंसा के अनेक कार्यों को रोकने के क़ानून बनाये और इनका उल्लंघन करने वाले के लिये २५० रुपये जुर्माना निश्चित कर रखा था । महाराणा उदयसिंह ने ३१ अगस्त १८५४ में राज - आज्ञापत्र द्वारा जैनियों के दशलाक्षकि पर्व में भादों सुदी पञ्चमी से भादों सुदी चौदस तक हर प्रकार के हिंसामय कार्यों की बन्दी कर रखी थी' ।
महाराणा कुम्भा ने मचींद दुर्ग में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के लिये एक बड़ा सुन्दर चैत्यालय बनवाया था । जैन योद्धाओं ने गुजरात और मालवे के बादशाहों के साथ बड़ी वीरता से युद्ध किये, जिनकी स्मृति में महाराणा कुम्भा ने ही लाखों रुपये खर्च करके मंज़िला जयकीर्ति -
४ -स्तम्भ बनवाया ।
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महाराणा समरसिंह की माता जयतल्लदेवी जैन-धर्मी थो । उसने भी जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिये अनेक जैन मन्दिर वनवाये । ओझा जी के कथनानुसार चित्तौड़ में श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर जयतल्लदेवी का ही बनवाया हुआ है । उदयपुर से ३६ मील दक्षिण में खैरवाड़े की सड़क के निकट धूलदेव नाम के नगर में पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का मन्दिर है, जिसमें केशर इतनी चढ़ती है कि उसका नाम 'केसरिया जी ' अर्थात् 'केसरियानाथ' है, जिसको न केवल जैनी बल्कि शैव,
१ - २ आज्ञापत्र की पूरी नक्कल के लिये 'जैन सिद्धान्त भास्कर', भाग १३, पृ० ११६, ११७, ११८ ।
३ राजपूताने के जैन वीरों का इतिहास, पृ० ३३८ ।
४ राजपूताने के जैन वीरों का इतिहास, पृ० ६७ । ५ श्रोझा, राजपूताने का इतिहास पृ० ४७३ ।
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