Book Title: Vardhaman Mahavir
Author(s): Digambardas Jain
Publisher: Digambardas Jain

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Page 506
________________ रायपालसिंह जैनधर्म प्रेमी थे। इनके पुत्र मोहन जी ने जैनाचार्य श्री शिवसेन जी के उपदेश से प्रभावित होकर जैनधर्म ग्रहण कर लिया था और उनके पुत्र महाराजा सम्पत्तिसेन ने भी कार्तिक सुदी १३ सं० १३५१ में जैनधर्म स्वीकार किया था। २६-अजमेर के चौहान वंशी राजा पृथ्वीराज प्र० जैनधर्म अनुरागी थे। इन्होंने जैन साधु श्री अभयदेव जी से धार्मिक शिक्षा प्राप्त को थी । श्री जिनेन्द्र भगवान में तो इनको इतना अधिक विश्वास था कि इन्होंने रणथम्भौर के जैन मन्दिर जी के शिखर पर बड़ा अमूल्य स्वर्ण-कलश चढ़ाया था। प्रथ्वीराज द्वि० भी बड़े जैनधर्म प्रेमी थे। जैन साधुओं का तो यह बहुत ही सम्मान करते थे । जिनेन्द्र भगवान की पूजा और, जैनधर्म की प्रभावना के लिये इन्होंने जैन मन्दिर को गाँव भेंट किये थे । इनके उत्तराधिकारी महाराजा सोमेश्वर प्रताप लंकेश्वर हुए हैं, यह जैनधर्म के अनुरागी और २३ वें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ जी के परम भक्त थे, जिनकी प्रभावना और भक्ति के लिये इन्होंने रेणुका नाम का गाँव श्री पार्श्वनाथ जी के मन्दिर जी को भेंट किया था । इन्हीं के पुत्र महाराजा पृथ्वीराज तृ. थे, जो बड़े प्रसिद्ध तीरअन्दाज थे और जिन्होंने भारत की रक्षा के लिये शहाबुद्दीन १-२, राजपूताने का जैनवीरों का इतिहास, पृ० १६५, १६६ । 3.४ King Prithviraj 1st of Ajmer honoured Jain Saint Abhayadeva. He received instructions from him and constructed gold Pinnacle of the Jain Temple at Ranthambhora. -Peterson's. Report IV. P. 87. ५.६ Prithviraj II was also a patron of Janism. He honoured the Jain Gurus of Bijaloya and bestowed the village of Morakuri for the up keep of the Jain Temple. SHJK & Heroes. P. 84. Soc Someshwara also patronised the Jains and made a gift of village Renuka to the Parshvanatha temple of Bijaloya. He was the illustrious father of Prithviraj III, who fought bravely with Shahabuddin Ghori. --Reu , loc. cit. 247-251 & Ojha; History of Rajputana, I. 363. ७८.] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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