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६६२ ई० में जैनाचार्य श्री यशोभद्रजी के प्रभाव से जैन धर्म प्रहरण कर लिया था । कल्हण, गजेसिंह और कृतिपाल भी जैन धर्म के प्रेमी थे ।
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१६. अग्निकुल - हिन्दु मत के अनुसार परमार, परिहार, सोलंकी और चौहान अग्निकुल के राजपूत समझे जाते हैं, जो टाड साहब के कथनानुसार जैन धर्म दीक्षित हुए थे । १७. चन्देले वंशी नरेश धङ्ग (६५० - ६६६ ई०) के राज्य काल में जैनी उन्नति पर थे । इन्हीं से आदर प्राप्त करने वाले सूर्यवंशी 'वीरपाहिल' ने ६५४ ई० में जैन मन्दिर को दान दिया । था । महाराजा कीर्तिवर्मा (१०४६ - ११००ई०) बड़े पराक्रमी और जैन धर्म-प्रेमी थे । आाला और ऊदल जैसे महायोधा वीर इसी वंश
के सम्राट थे । चन्देले वीर कुल से जैन धर्म का सम्पर्क रहा है ६ । इनकी राजधानी चन्देरी में इनके राजमहल के निकट आज भी अनेक जैन मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं ।
१८. परमारवंशी मालवा के राजा थे। सिन्धु जैनधर्मी थे। उजैन इनकी राजधानी थी । इनके कोई सन्तान न थी । एक दिन यह अपनी पटरानी रत्नावलि के साथ बन-क्रीडा को गये तो एक मुञ्ज (धान) के खेत में एक नन्हा बालक अँगूठा चूसते पड़ा पाया । रानी ने उसे उठा लिया और राजा से कहा कि इसको ही पुत्र सम | राजा बचन दे दिया कि मेरे बाद यही राज्य का
१. अयोध्याप्रसाद गोयली : जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन पृ० ६६ । २. जैन वीरों का इतिहास ( जैन मित्र मंडल देहली) पृ० ५० ।
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टाडराजस्थान : खण्ड १ पृ० ४६ वे खण्ड २ अध्याय २६ पृ०७१३ । ४-७. जैन वीरों का इतिहास (जैन मित्र मण्डल देहली) पृ० ४७-४८ । ८-६ पं० विनोदीलालः भक्ताम्बर टीका, श्लोक १३८, १७२, १६६
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