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मधु, अभक्षण, बिनछनाजल, रात्रिभोजन और हिंसा आदि के त्याग की शिक्षा दी तो दरबारियों ने उनसे शास्त्रों के प्रमाण मांगे, जिस पर उन्होंने जैनग्रन्थों के हवाले न देकर केवल व्यास जी तथा केशव जी आदि अजैन महान् ऋषियों के प्रमाणों से अपने कथन को पुष्टि की'। महाकवि पं० विनोदीलालजी के शब्दों में,"भोज ने अपने दरबारियों के कहने से जैनाचार्य श्री मानतुङ्ग को लोहे की जञ्जीरों में जकड़कर २४ कालकोठों में बन्द करके ४८ मजबूत ताले लगवाकर नंगी तलवार का पहरा बिठा दिया । आचार्य महाराज ने पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी की स्तुति आरम्भ करदी, जो
आज तक भक्तामर स्तोत्र क नाम से प्रसिद्ध है । जिनेन्द्र-भक्ति के फल से लोहे की जञ्जीरें और ४८ ताले स्वयं टूटकर बन्दीखाने की २४ कोठरियों के किवाड़ आप से आप खुल गये । उनको तीन बार बन्द किया और पहले से भी अधिक मजबूत ताले लगाये, परन्तु हर बार स्वयं ताले टूटकर जेलखाने के किवाड़ खुल जाते थे । जैनाचार्य श्री मानतुङ्ग जी के ज्ञान और अतिस्तोत्र से प्रभावित होकर राजा भोज मुनिराज के चरणों में गिर पड़े और कहा:
मैं तुमको जान्यो नहीं मिथ्या संगत पाय । जैनधर्म मार्ग भलो ही सम्यक दृढि कराय ॥ ७०२ ॥ तुम करुणा के सिंधु हो दीनानाथ दयाल | मोह श्रावक वृत दीजिये बहु विधि हो कृपाल ।। ७०७ ॥
-विनोदीलाल : भक्तामर स्तोत्र टीका महाराजा भोज और इनके दरबारियों ने श्री मानतुङ्ग आचार्य से जैन धर्म ग्रहण कर लिया। महाराजा नरबर्मा देव (११०४-११०७) महायोधा और जैनधर्म अनु रागी थे । जैनाचार्य १. "अजैन दृष्टि में जैन मूलगुण" इसो पुस्तक का खण्ड ३ । २-४. पं० विनोदीलाल भक्तामर स्तोत्र टीक। जो श्रावण सुदि दशमी सम्वत्
सत्रासो घटताल में औरङ्गजेब बादशाह के समय रची गई थी । ५-१. पं० विनोदीलाल : भक्तामर स्तोत्र टीका श्लोक ६६८-७५० । ४७०
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