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उन्होंने उसे शान्त किया और स्वयं जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में 'एकी भाव स्तोत्र' रचने में तल्लीन होगये । अगले दिन महाराजा जयसिंह उनकी बन्दना को गये तो गुरु जी की काया स्वर्णसमान सुन्दर देखकर प्रसन्न होगये । तुरन्त खबर देने वाले को बुलाकर असत्य कहने का कारण पूछा ? आचार्य महाराज बोले, "इसने आपसे असत्य नहीं कहा, वास्तव में मुझे कुष्ट रोग होगया था , परन्तु 'जिनेन्द्र' भक्ति के प्रभाव से जाता रहा' । जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर प्र० (१०४२-१०६८ ई०) पक्के जैनधर्मी थे । इन्होंने जैनधर्म की प्रभावना के लिये भूमि भेंट की और जैनाचार्य श्री अजितसेन जी से प्रभावित होकर उन्हें 'शब्द चतुर्मुख' की पदवी प्रदान की । इनके पुत्र भुवनैकमल्ल सोमेश्वर द्वि० (१०६८१०७६ ई०) भी जैनधर्म के दृढ़ विश्वासी और भव्य श्रावक थे' इन्होंने जैनधर्म की प्रभावना के लिये जैनाचार्य श्री कुलचन्द्रदेव को गाँव भेंट किये थे । इनके छोटे भाई- विक्रमादित्य द्वि० (१०७६-११२६ ई०) बड़े वीर सम्राट थे । ये जैनधर्म के भक्त थे । इन्होंने जैन मन्दिरों को दान दिये जैनाचार्य श्री वासवचन्द्र जी भी इनके समय में हुये हैं । महाकवि 'विल्हण' ने इन्हीं के समय अपना प्रसिद्ध काव्य 'विक्रमाङ्कदेव चरित' रचा था महाराजा विक्रमादित्य महातपस्वी जैनाचार्य श्री अर्हन्तनन्दी के शिष्य थे । इनके पुत्र सोमेश्वर तृ० (११२६-११३८ ई०) की एक उपाधि सर्वज्ञ (All wise) थी' । इनके बाद इनके छोटे भाई जगदेकमल्ल (११३८-११५० ई०) जैनधर्मी थे'। इनके महायोद्धा सेनापति नागवर्मा भी जैनधर्मी थे २ इस प्रकार हर १. संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ ख० ३ पृ० १४८८ २-५ Ep. Car. II No. 67 P. 30 Medieval Jainism P, 51,
Some Historical Jain Lings & Heroes. Page 69, ६-१०. संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ऐ खण्ड ३ पृ० १२५.१२६. ११-१२ दिगम्बर जैन (सूरत) वर्ष ६ पृ० ७२ B.
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