Book Title: Vardhaman Mahavir
Author(s): Digambardas Jain
Publisher: Digambardas Jain

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Page 486
________________ कि उनके शुभ नाम से ही अपने ग्रन्थ को आरम्भ करते हुये कहा: प्रणिपत्य वर्द्धमानं प्रश्नोत्तर रत्नमालिका वक्ष्ये । नाग नरामर वन्द्यं देवं देवाधियं वीरम् ।। विवेकात्त्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचिताऽमोघ वर्षेण सुधियां सदलंकृति ॥ अर्थात्-श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके मैं राजा अमोघवर्ष, जिसने विवेक से राजपद त्याग दिया । प्रश्नोत्तर रत्नमाला नाम के ग्रन्थ की रचना करता हूँ। __ अमोघवषंके पुत्र कृष्णराजद्वि० ने जिनेन्द्र भगवान की प्रभावना केलिए जैन मन्दिर को दान दिये। यह जैन धर्म के दृढ़ विश्वासी थे' और जैनाचार्य श्री गुणभद्र जी के शिष्य थे । जिन्होंने उत्तरपुराण रचा था इन्द्रराज तृ० २४ फरवरी सन् ६१५ ई० को गद्दी पर बैठे। इन्होंने जैनधर्म की खूब प्रभावना की और धार्मिक कार्यों के लिये ४०० गांव दान दिये । इनको विश्वास था कि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा से इच्छाओं की स्वयं पूर्ति हो जाती है । इसलिये इन्होंने १६ वें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ जी के चरण स्थापित किये। थे । कृष्णराज तृ. ६४० ई० में गद्दी पर बैठे । ये इतने वीर थे कि चित्रकूट आदि अनेक किलों को विजित कर लिया था ।जैनाचार्य श्री वादि घांघल भट्टा जी से प्रभावित होकर इन्होंने जैनधर्म की १.३ Krishna II was a devout Jain. His preceptor was Gunabhadracharya. He made a grant to a 'basadi' at Mulgand.-Altekar, loc. cit. P. 409. JBBRAS. Vol.XVIII. P.253 257 and 261. 4. Indra III made pedestal of Arhat Shanti in order that his own desires might be fulfilled, -Some Historical Jaina Kings & Heroes. P. 48. &. Krishna III was interested in Jainisın. He had great regard for Jain guru Vadighangal Bhatta, Krishoa patronised Ponna.- SHJK & Heroes. P. 48. . ४६० ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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