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है, यहां आटा नहीं तोला जाता" । कोठारी जी बोले कि चिन्ता न करो देखना रणभूमि में भी किस प्रकार दोनों हाथों से आटा तोलता हूँ। लड़ाई का बिगुल बजा तो कोठारी जी सब से आगे थे उन्होंने घोड़े की लगाम को अपनी कमर से बांध रखा था और दोनों हाथों में तलवार लिये राजपूत सरदारों को ललकार रहे थे कि यदि तुम्हें मुझे आटा तोलते हुए देखना है तो आगे बढ़ो । महायोद्धा कोठारी जी मुगल सेना पर टूट पड़े और दोनों हाथों से मुग़ल फौज की वह मार-काट की, कि राजपूत और मुग़ल दोनों सेनाएँ आश्चर्य करने लगी' ।
जब औरङ्गजेब के अत्याचार बढ़ गये तो मेवाड़ के राणा राजसिंह के सेनापति दयालदास जैन से न देखा गया। उसने महाराणा से औरङ्गजेब को पत्र लिखवाया कि ऐसे अत्याचार उचित नहीं। औरङ्गजेब पत्र पढ़ कर आगबबूला होगया और ३ दिसम्बर १६७६ ई० को मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। अत्याचारों को मेटने के लिए जैनधर्मी दयालदास स्वयं तलवार लेकर रणभूमि में गये और टाड़ साहब के शब्दों में, "वे इस वीरता से लड़े कि मुग़ल सेना को दुम दबा कर पीछे भागना पड़ा"। बादशाह का पुत्र अजीमखाँ चित्तौड़ के नजदीक पड़ा हुआ था, दयालदास ने उस पर भी धावा बोल दिया और उस अहिंसाधर्मी ने ऐसा घमासान युद्ध किया कि उसकी सेना को मारकाट कर किले पर अपना कब्जा कर लिया। ___ यही नहीं बल्कि स्कूल, कालिज, अस्पताल, यतीमखाने धर्मशालाएँ, शास्त्रभण्डार, कारखाने आदि अनेक उपयोगी संस्थाएँ खोल कर और अधिक से अधिक टैक्स, चन्दा, दान आदि देकर धार्मिक, सामाजिक हर क्षेत्र में तन, मन और धन से देश की सेवा करने वाले हजारों नहीं लाखों जैन देश भक्त हुए हैं और हैं। १-४, राजपूताने के जैनवीर, पृ० १२१ व १०८ । ४३२]
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