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प्रताप, अकबर को सन्धि के लिये पत्र लिखने लगे । जैन धर्मी भामाशाह ने कहा कि जब तक हमारी-तुम्हारी भुजाओं में बल है तो क्या अपना देश पराधीन हो जायेगा ? महाराणा प्रताप रो पड़े और कहा, "मेरे पास इस समय फौज के खच के लिये पैसा नहीं और बिना फौज के उससे कबतक युद्ध करू" ? भामाशाह ने तुरन्त ही अपनी वह अतुल सम्पत्ति जिसके कारण भाई भाई के खून का प्यासा होजाता है, महाराणा को भंट करदी' । महाराणा ने लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि राजपूत दिया हुआ धन वापस नहीं लिया करते । भामाशाह ने कहा "महाराणा ! यह सम्पत्ति मैं आपको नहीं दे रहा हूं मेरा भूमि का आज इसकी आवश्यकता है, इसे मैं अपने देश को अर्पण कर रहा हूँ। आप फौज को इकट्ठा करें मैं स्वयं देश-रक्षा के लिए लडूंगा " । टाड साहब के शब्दों मे वह सम्पत्ति इतनी थी कि २५ हजार सेना के लिए १२ वर्ष को काफी हो । महाराणा प्रताप ने फौज को इकट्ठा किया और भामाशाह अपने भाई ताराचन्द को लेकर मुगल सेना के साथ लड़ने के लिए चल दिये और २५ जून सन् १५७६ को हल्दी घाटी के मुकाम पर इस वीरता से लड़े कि. मुग़ल फौज के छक्के छूट गय' । ऐतिहासिक विद्वानों का कथन है कि यदि भामाशाह जैन वीररत्न इतनी अधिक सम्पत्ति राष्ट्रीय सेवा के लिये अर्पण न करते और अपनी जान जोखम में डाल कर इस वीरता से न लड़ते तो आज राजपूताने का इतिहास और ही कुछ होता ।
पण्डित गौरीशङ्कर हीराचन्द ओझा के शब्दों में, "मुग़ल सेना ने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी तो महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने जैनवीर कोठारी को रणबाजखां के मुकाबले पर लड़ने को भेजा। राजपूत सरदारों ने हँसी में कह दिया, “कोठारी जी ! यह रणभूमि
१-५. राजपुताने के जैन वीर. पृ० ८०-६६ and Todd's ·ajisthan.
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