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अग्निभूति के धनश्री, मित्रश्री और नागश्री नाम की तीन पुत्रियाँ थीं। सोमदेव के तीनों लड़कों का विवाह इन तीनों लड़कियों से हुआ । सोमदेव संसार को असार जान कर जैन मुनि हो गया था, तीनों लड़के और सोमिला श्रावक धर्म पालने लगी। धनश्री और मित्रश्री भी जैन धर्म में श्रद्धान रखती थी, परन्तु नागश्री को यह बात अच्छी न लगी। एक दिन धर्मरुचि नाम के योगी आहार के निमित्त सोमदत्त के घर आये, तो नागश्री ने मुनिराज को आहार में जहर दे दिया, जिसके पाप से नागश्री को कुष्ट रोग हो गया इस लोक के महादुःख भोग कर परलोक में भी पांचवें नरक के महा भयानक दुःख सहन करने पड़े। वहां से आकर सर्प हुई। विष भरे जीवन से छुटकारा मिला तो फिर नरक में गई वहां से आकर चम्पापुरी नगरी में एक चांडाल के घर पैदा हुई । एक रोज वह जङ्गल में जा रही था कि समाजिगुप्त नाम के मुनीश्वर उस को मिल गए । वह चांडाल-पुत्री महादुखी थी उनकी शान्त मुद्रा को देख उनसे धर्म का उपदेश सुना, हमेशा के लिये मांस, शराब, शहद और पांच उदुम्बर का त्याग किया। मर कर धनी नाम के एक वैश्य सेठ के यहां दुर्गन्धा नाम की पुत्री हुई उस के शरीर से इतनी दुर्गन्ध आती थी कि कोई उस को अपने पास बिठाता तक न था, एक दिन तीन अर्यिकाएँ आहार के निमित्त आई तो उस ने भक्ति भाव से उन को परघाह लिया। आहार करने के बाद उन्होंने उसको धर्म का स्वरूप बताया, जिसको सुन कर उसे वैराग्य आ गया और उनसे दीक्षा ले, अर्यिका हो कर तप करने लगी। एक दिन वसन्त-सेना नाम की वैश्या अपने पांच लम्पट पुरुषों के साथ क्रीड़ा करती हुई उसी बन में आ निकली कि जहाँ दुर्गन्धा तप कर रही थी। दुर्गन्धा के हृदय में उसको पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करते देख एक क्षण के लिये वैसे ही भोग-विलास की भावना उत्पन्न होगई । परन्तु दूसरे ही
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