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वाले शिवजी', जिनेश्वर, बौद्ध ग्रन्थों में सर्वज्ञ' और मनुस्मृति में उनकी पूजा से ६८ तीर्थों की यात्रा का फल बताया है ।
जैनधर्मानुसार श्री ऋषभदेव श्री अगनीन्ध्र के पुत्र श्री नाभी. राये जी के पुत्र हैं और इनकी माता का नाम मरुदेवी है, जो श्रीमद्भागवतपुराण भी स्वीकार करता है :''नाभेरसा वषभ आमसु देव सूनुर्योवैवचार समदृग जडयोगचर्याम् ।
यत. पारमहंसस्य मृषयः पदमामनन्ति स्वस्थः प्रशान्तःकरण परिमुक्तसङ्गः'' ॥१०॥ इसका अर्थ ज्वालाप्रसाद मिश्र ने इस प्रकार किया है:___ "ऋषभदेव अवतार कहे हैं कि ईश्वर अगनीन्ध्र के पुत्र नाभी से मरुदेवी पूत्र ऋषभदेव जी भये समानदृष्टा जड़ की नाई योगाभ्यास करते भये जिन के पारमहंस्य पद को ऋषियों ने नमस्कार कीनो, स्वस्थ शान्त, इन्द्रिय सब संग त्यागे ऋषभदेव जी भये जिन से जैनमत प्रगट भयो" ।। १०॥
जैनधर्म ऋषभदेव जी के भरतादि सौ पुत्र बताता है और कहता है कि प्रथम चक्रवर्ती भरत जी जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है, इन्हीं प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव के पुत्र थे, इसी बात को आग्नेय पुराण , कूर्मपुराण, स्कन्धपुराण, शिवपुराण, वायुमहापुराण',गरुडपुराण' और विष्णुपुराण''आदि प्राचीन अजैन प्रामाणिक ग्रंथ भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं
अग्नीधं सूनो नामस्तु ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः । ऋषभाद्भरतो जज्ञे वीरपुत्र शताद्वरः ॥ ३९ ॥ सोभिशिंच्यर्षभः पुत्र' महाप्रावाज्यमास्थित. ।
तपस्तेये महाभागः पलहाश्रम शंसयः ॥४०॥ १-२. कैलाशे विपुले रन्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः ।।
चकार स्वावतारं च सर्वशः सर्वगः शिवः ॥५६॥ -प्रभास • पुराण ३. इसी ग्रंथ के पृ० ४८ का फुट नोट नं० २। ४ अष्टषष्टि तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । श्रीआदिनाथदेवस्य स्मरणेनापि ॥ मन ५-११. इसी ग्रन्थ के खण्ड २ में 'भरत और भारतवर्ष के फुटनोट ।
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