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जैनधर्म और भारतवर्ष का इतिहास
और
संसार बस्था बदल तो सहव्यों का समूह अनादि है' । जनजाति
अनादिति धर्ममा तक ही थी तब दान
जैनधर्म की प्राचीनता
आदिपुरुष श्री ऋषभदेव संसार जीव अजीव आदि छः द्रव्यों का समूह है' । द्रव्य की
अवस्था बदल तो सकती है, परन्तु इसका नाश नहीं होता । जब द्रव्य अनादि है तो द्रव्यों का समूह (संसार) तथा जीव (Soul) को गुण अर्थात् धर्म (जैनधर्म) भी अनादि है । जैनधर्म सदा से था, सदा से है और सदा तक रहेगा' । आर्य जाति ऋग्वेदादि का भारत में प्राकर निर्माण कर रही थी तब और उनके
आने से पहले भी जैन धर्म का प्रचार था । जिन्हें वेदनिन्दक नास्तिक और इतिहासकार द्राविड़ कहते थे. वे जैनी ही थे । जैन धर्म तब से प्रचलित है जब से संसार में सृष्टि का आरम्भ हुआ । जैन दर्शन वेदान्त आदि दर्शनों से पूर्व का है । भ० महावीर या पार्श्वनाथ ने जैन धर्म की नींव नहीं डाली बल्कि उनके द्वारा तो इसका पुन: संजीवन हुआ है। ___उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों युगों में छः छः काल, जिनमें से तीन भोगभूमि और तीन कर्मभूमि के होते हैं । भोगभूमि में कल्पवृक्षों द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के कारण, धर्मकर्म की आवश्यकता नहीं रहती। इस मौजूदा अवसर्पिणी युग के तीसरे काल के अंतमें कल्पवृक्षों की शक्ति नष्ट होगई तो चौथे काल के आरंभ में जीवों को उनका कर्त्तव्य (धर्म) बताने के लिये कुलकर नाभीराय के पुत्र प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव ने जैन धर्म की स्थापना की। १-४ 'वीर-उपदेश' इसी ग्रन्थ का पृ० ३३८ [ ५-६ जैन सन्देश आगरा (२६ अप्रैल १९४५) पृ० १७ । ७-१० इसी ग्रन्थ के पृ० १००, १०१, १०२ व Contributions of Jains.
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