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निःशङ्क होकर आत्म-ध्यान लगाया करते थे।
विद्य त नाम के चोर ने रानमहल से महारानी चेलना का रत्नमयी हार चुरा लिया। कोतवाल ने भांप लिया, चोर जान बचाने को श्मशान की तरफ भागा, कोतवाल ने पीछा किया तो हार को फेंक कर वह एक बृक्ष की ओट में छुप गया। जिस जगह हार गिरा था उसके पास वारिषेण आत्म-ध्यान में लीन थे। इनको ही चोर समझ कर कोतवाल ने हार समेत इनको राजा श्रोणिक के दरबार में पेश किया। राजा को विश्वास न था कि वारिषेण जैसा धर्मात्मा अपनी माता का हार चुराये, परन्तु चोरी का माल और चोर दोनों की मौजूदगी तथा कोतवाल की शहादत । यदि छोड़ा तो जनता कह देगी कि पुत्र के मोह में आकर इन्साफ का खून कर दिया, इस लिये उसने उसको प्राण दण्ड की सजा दे दी।
चाण्डाल हैरान था कि यह क्या ? वह वारिषेण को क़त्ल करने के लिये बारबार तलवार उठाये परन्तु उसका हाथ न चले । धर्मफल के प्रभाव से वनदेव ने चाण्डाल का हाथ कील दिया था। सारे राजगृह में शोर मच गया । राजा श्रेणिक भी आगये और उसको राजमहल में चलने के लिये बहुत जोर दिया परन्तु उनकी दृष्टि में तो संसार भयानक और दुखदायी दिखाई पड़ता था उन्होंने कहा कि क्षणिक संसारी सुखों की ममता में अविनाशी सुखों के अवसर को क्यों खोऊँ । वह भ० महावीर के समवशरण में जाकर जैन साधु होगये।
शालिभद्र पर वीर प्रभाव राजगृह के सबसे बड़े व्यापारी शालिभद्र ने आनन्दभेरी सुनी तो भगवान महावीर के आगमन को जान कर उसका हृदय आनन्द से गदगद करने लगा और तुरन्त भ० वीर के दर्शन के लिये उनके समवशरण में पहुंचा और उनसे अपने पिछले जन्म
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