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इनाम में दे दिये और तत्काल ही सारे नगर में श्रानन्द-भेरी बजाने की आज्ञा दी और इतना दान किया कि उनके राज्य में कोई भी निर्धन नहीं रहा । भेरी के शब्द सुन कर प्रजा वीर - दर्शनों के लिये विपुलाचल पर्वत पर जाने के वास्ते राजमहल में इकट्ठी हो गई । चतुरङ्गिणी सेना, सजे हुए घोड़े, लम्बे दांतों वाले हाथी, सोने के रथ, भांति-भांति के बाजे, असंख्य योद्धा - प्यादे, और शाही ठाठ-बाट के साथ अपने राज परिवार सहित महाराज श्रेणिक बिम्बसार वीर भगवान् की वन्दना को चले ।
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जब समवशरण के निकट आये तो श्रेणिक ने राज-चिह्न छोड़ कर बड़ी विनय के साथ पैदल ही समवशरण में पहुंच कर भगवान् महावीर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और उनकी स्तुति करके ' अत्यन्त विनय के साथ पूछा- कि " राजसुख और भोग-उपभोग के समस्त पदार्थ पूर्ण रूप से प्राप्त होने पर भी हे वीर प्रभु आप ऐसी भरी जवानी में क्यों जैन साधु हुए" ? उत्तर में सुना, " राजन् ! लोक की यही तो भूल है कि जिस प्रकार कुत्ता हड्डी में सुख मानता है उसी प्रकार संसारी जीव क्षण भर के इन्द्रिय सुखों में आनन्द मानता है | यदि भोगों में सुख हो तो रोगी भो भोगों में आनन्द माने | वास्तव में सच्चा सुख भोग में नहीं बल्कि त्याग में है । इच्छाओं के त्यागने के लिये भी शक्ति की आवश्यकता है । शक्ति जवानी में ही अधिक होती है इस लिये विषय भोगों, इन्द्रियों और इच्छाओं को वश में करने के लिये जवानी में ही जिनदीक्षा लेनी उचित है" ।
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महाराजा श्रेणिक ने पूछा- कि रावण को मांसाहारी, हनुमान जी को बानर और श्री रामचन्द्र जी जैसे धर्मात्मा को हिरण का शिकार करने वाला कहा जाता है, यह कहां तक सत्य है ? उत्तर
१. ' ' महाराजा श्र ेणिक की वीर भक्ति" इसी ग्रन्थ का पृ० ७१ |
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