________________
1
इस लिये जैन धर्म में कर्म के भावकर्म व द्रव्य कर्म नाम के दो भेद हैं। वैसे तो अनेक प्रकार के कर्म करने के कारण द्रव्य कर्म के ८४ लाख भेद हैं जिन के कारण यह जीव ८४ लाख योनियों में भटकता फिरता है (जिनका विस्तार 'महाबन्ध' व 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' आदि हिन्दी व अंग्रेजी में छपे हुए अनेक जैन ग्रन्थों में देखिये) परन्तु कर्मों के आठ मुख्य भेद इस प्रकार हैं
१. ज्ञानावरणी – जो दूसरों के ज्ञान में बाधा डालते हैं, पुरुषों या गुरुओं का अपमान करते हैं, अपनी विद्या का मान करते हैं, सच्चे शास्त्रों को दोष लगाते हैं और विद्वान् होने पर भी विद्या दान नहीं देते, उन्हें ज्ञानावरणी कर्मों की उत्पत्ति होती है। जिससे ज्ञान ढक जाते हैं और वे अगले जन्म में मूर्ख होते हैं । जो ज्ञान-दान देते हैं, विद्वानों का सत्कार करते हैं, सर्वज्ञ भगवान् के वनों को पढ़ते-पढ़ाते, सुनते-सुनाते हैं, उनका ज्ञानावरणी कर्म ढीला पड़ कर ज्ञान बढ़ता है।
२. दर्शनावरणी - जो किसी के देखने में रुकावट या आंखों में बाधा डालते हैं, अन्धों का मखौल उड़ाते हैं उन के दर्शनावरणी कर्म की उत्पत्ति होकर आंखों का रोगी होना पड़ता है । जो दूसरे के देखने की शक्ति बढ़ाने में सहायता देते हैं, उनका दर्शनावरण कर्म कमजोर पड़ जाता है ।
I
३. मोहनीय — मोह के कारण ही राग-द्वेष होता है जिस से क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों की उत्पत्ति होती है, जिसके वश हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह और कुशीलता पांच महापाप होते हैं, इस लिये मोहनीय कर्म सब कर्मों का राजा और महादुःखदायक है | अधिक मोह वाला मर कर मक्खी होता है, संसारी पदार्थों से जितना मोह कम किया जाये उतना ही मोहनीय कर्म ढीले पड़
[ ३६५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com