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रंगबिरंगे फूल खिले हुये हैं, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छारहा है । बनमाली जरा आगे बढ़ा तो भगवान महावीर के जय जयकार के शब्दों से पर्वत गूजता सुनाई पड़ा। एक ऊँचे महासुन्दर रत्नमयी सोने के सिंहासन पर भगवान महावीर विराजमान हैं । स्वर्ग के इन्द्र चंवर ढोल रहे हैं, होरे जवाहरातों से सुशोभित तीन रत्नमयी सोने के छत्र मस्तक पर झूम रहे हैं । आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा हो रही है, देवी-देवता बड़े उत्साह और भक्ति से भगवान की वन्दना और स्तुति कर रहे हैं । अब बनमाली समझ गया कि यह सब भगवान महावीर के शुभागमन का प्रताप है, जिनको नमस्कार करने के लिये समस्त बृक्ष फल-फूलों से झुक रहे हैं । बनमाली ने स्वयं भगवान महावीर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और यह शुभ समाचार महाराज श्रेणिक को सुनाने के लिये, हर प्रकार के फल-फूलों की डाली सजा कर वह उनके दरबार की ओर चल दिया।
महाराजा श्रेणिक बिम्बसार सोने के ऊँचे सिंहासन पर विराजमान थे कि द्वारपाल ने खबर दी कि बनमाली आपसे मिलने की आज्ञा चाहता है । महाराजा की स्वीकृति पर बनमाली ते नमस्कार करते हुये उनको डाली भेंट की तो बिन ऋतु के फलफूल दख कर राजा ने आश्चर्य से पूछा कि यह तुम कहां से लाये ? तो बनमाली बोला-"राजन् ! आज विपुलाचल पर्वत पर भ० महावीर पधारे है"। यह समाचार सुनकर महाराजा श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुये और तुरन्त राजसिंहासन छोड़, जिस दिशा में भगवान महावीर का समवशरण था उसी ओर सात कदम आगे बढ़ कर उन्होंने सात बार भगवान महावीर को नमस्कार किया, अपने सारे वस्त्र और आभूषण जो उस समय पहिने हुए थे, धनमाली को
१. पाण्डव पुराण, पृ० ११ ।
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