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मेध यज्ञ करने से भी वह लाभ नहीं, जो अहिंसा धर्म के पालने से होता है' । भागवत् पुराण में हर प्रकार के यज्ञ और तप करने से भी अधिक हिंसा का फल बताया है ' । 'रामायण' में हिंसा को धर्म का मूल स्वीकार किया है । शिवपुराण वाराहपुराण', स्कन्धपुराण ६, रुद्रपुराण में भी अहिंसा की महिमा का कथन है । महाभारत में ब्राह्मणों को हजारों गडवों के दान से भी अधिक उत्तम हिंसा को बताया है । श्रीकृष्ण जी ने तो यहाँ तक स्पष्ट कर दिया है कि वहीं धर्म है जहाँ अहिंसा है और कहा है :
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श्रहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः । श्रहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ श्रहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिसा पर फलम् । श्रहिंसा परमं मित्रमहिसा परमं सुखम् ॥
१. वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो जयेत शतं समाः ।
मांसानि न च खादेत तयो पुण्यफलं समम् ॥ - मनुस्मृति श्र० ५ श्लोक ५३ । २. सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानव |
जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि ॥ - भागवत स्क० ३ ० ७,
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान |
'तुलसी' दया न छोड़िये जब तक घट में प्रान ॥ -तुलसीदास : रामचरित ४. अहिंसा परमो धर्मः पापमात्मप्रपीडनम् । - शिवपुराण
५. अहिंसा परमो धर्मो हिंसा परमं सुखम् ।—गरुड़पुराण
६. अहिंसा परमोधर्मः । — स्कन्धपुराण
७. सर्वे तनुभृतस्तुल्या यदि बुद्धया विचार्यते ।
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-- महाभारत अनुशासन पर्व
इदं निश्चित्य केनापि न हिंस्यः कोऽपि कुत्रचित् ॥ - रुद्रपुराण
कपिलानां सहस्राणि यो द्विजेभ्यः प्रयच्छति ।
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एकस्य जीवितं दद्यात् स च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥ - महाभारत शान्तिपर्व ६. अहिंसा लक्षणो धर्मो धर्म प्राणिनां वधः ।
तस्माद धर्मांर्थिभिर्लोकैः कर्तव्या प्राणिनां दया ॥ - श्रीकृष्ण जी : महाभारत |
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