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जी पहले पाप कर्मों का फल जान कर बिना किसी खेद के प्रसन्न चित्त होकर सहन करती थी और विचार करती थी कि संसार में कुरूप स्त्रियां अपने आपको भाग्यहीन समझती हैं, परन्तु मैं तो यह अनुभव कर रही हूँ कि यह रूप महादुखों की खान है। जिस के कारण मैं अपने माता पिता से जुदा हुई और यह कष्ट उठा रही हूँ।
सारा देश महादुःख अनुभव कर रहा था कि छः मास होगये श्री वर्द्धमान महावीर का आहार-जल नहीं हुआ, चन्दना जी रह-रह कर विचारती थी कि यदि मैं स्वतन्त्र होता तो अवश्य उनके आहार का यत्न करती, मैं बड़ी अभागिनी हूं कि मेरे इस नगर में होते हुए वीर स्वामी जैसे महामुनि छः महीने तक बिना आहार-जल के रहें ? चन्दना जी को वही कोदों के दाने भोजन के लिए मिले तो उन्होंने यह कह कर कि जब श्री वीर स्वामी को आहार नहीं छुआ तो मैं क्यों करू ? उन को रखने के लिये आंगन में आई तो वीर स्वामी की जय जयकार के शब्द सुने, दरवाजे की तरफ लपकी तो वीर स्वामी को सामने
आते देख कर पडघाहने को खड़ी हो गई, भगवान को भरे नयन देख, भूल गई वह इस बात को कि मैं दासी हूं और उसने भगवान को पडघाह ही लिया । पुण्य के प्रभाव से कोदों के दाने खीर' हो गये, निरन्तराय आहार हुआ । स्वर्ग के देवों ने पंचाश्चर्य करके हर्ष मनाया । लोगों ने कहा, “धन्य है पतितपावन भगवान महावीर को जिन्होंने दलित कुमारी का उद्धार किया । धन्य है सेठ वृषभसेन को जिन्होंने बावजूद इस प्रधानता के कि किसी दूसरे घर में जबरदस्ती रही हुई स्त्री को आश्रय न दो, कुरीतियों से न दब कर उन्होंने चन्दना जी को शरण दी और वे लोकमूढता में नहीं बहे।" १ सो वह तक कोदवन वोद, तन्दुल खीर भयो अनुमोद ।
माटीपात्र हेममय सोय, धरम तर्ने फल कहा न होय ॥३६६॥-बर्द्धमानपुराण
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