________________
का आदर-सत्कार करना ।
६. वैय्यावृत्य — बिना किसी स्वार्थ के आचार्यों, उपाध्यायों, तपस्वियों तथा साधुओं की सेवा करना ।
आत्मा के गुणों को विश्वास पूर्वक जानने
१०. स्वाध्याय
तथा धर्म की बुद्धि के लिये शास्त्रों का मनन करना ।
११. व्युतसर्ग -- २४ प्रकार की परिग्रहों से ममता त्यागना । चार प्रकार के होते हैं:
१२.
ध्यान
(१) आर्त - स्त्री-पुत्रादि के वियोग पर शोक करना, अनिष्ट सम्बन्ध का खेद करना, रोग होने पर दुःखी होना, आगामी भोगों की इच्छा करना ।
(२) रौद्र - हिंसा करने, कराने व सुनने में आनन्द मानना । असत्य बोलकर, बुलवाकर, बोला हुआ सुनकर खुशी होना । चोरी करके, कराकर, सुनकर हर्षित होना । परिग्रह बढ़ाकर, बढ़वा कर, बढ़ती हुई देखकर हर्ष मानना ।
(३) धर्म - सात तत्वों को विचारना, अपने व दूसरों के अज्ञान को दूर करने का उपाय सोचना, पाप कर्मों के फल का स्वरूप विचारना, यह विचारना कि मैं कौन हूँ ? संसार क्या है ? मेरा कर्त्तव्य क्या है ? तथा बारह भावनाएँ भाना ।
-
-
(४) शुक्ल - शुद्ध आत्मा के गुणों का बार-बार चिन्तवन करते हुए उसी के स्वरूप में लीन रहना ।
आर्त्त और रौद्र तो पाप बंध का कारण हैं । धर्म व शुक्ल में जितनी अधिक वीतरागता होती है उतनी ही अधिक कर्मों की निर्जरा होती है और जितना शुभ राग होता है उतना अधिक पुण्य बन्ध का कारण है। श्री भगवान् महावीर आर्त्त और रौद्र ध्यान का त्याग करके मन वचन काय से धर्म ध्यान तथा शुक्लध्यान में लीन रहते थे ।
[ ३१६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com