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वीर तप
तप से कर्म कटते हैं, पापों का नाश होता है । राज्य-सुख और इन्द्र - पद तो साधारण बात है, तप से तो संसारी आत्मा परमात्मा तक हो जाती है । तप बिना मनुष्य जन्म निष्फल है ।
- लौकान्तिकदेव : वर्द्धमान पुराण, पृ० ६० । कर्मों की निर्जरा के हेतु श्री वर्द्धमान महावीर छः प्रकार का वाह्य तथा छः प्रकार का अन्तरङ्ग, १२ प्रकार का तप' करते थे:
१. अनशन – कषायों और इच्छाओं को घटाने के लिये भोजन का त्याग करके मर्यादा रूप धर्म ध्यान में लीन रहना । २. अवमौदर्य्य – इन्द्रियों की लोलुपता, प्रमाद और निद्रा को कम करने के लिये भूख से कम आहार लेना ।
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३. वृत्तिपरिसंख्यान - भोजन के लिये जाते हुए कोई प्रतिज्ञा ले लेना और उसे किसी को न बताते हुए उस के अनुसार विधि मिलने पर भोजन करना, नहीं तो उपवास रखना |
४ रसपरित्याग — स्वाद को घटाने और रसों से मोह हटाने के लिये मीठा, घी, दूध, दही, तेल, नमक, इन छ: रसों में से एक या अनेक का मर्यादा रूप त्याग करना । ५. विविक्त शय्यासन
- स्वाध्याय, सामायिक तथा धर्म ध्यान
के लिये पर्वत, गुफा, श्मशान आदि एकान्त में रहना । ६. कायक्लेश - शरीर की मोह-ममता कम करने के लिए,
शरीरी दुःखों का भय न करके महाघोर तप करना । ७ प्रायश्चित - प्रमाद व अज्ञानता से दोष होने पर दण्डलेना । ८. विनय - सम्यग्दर्शी साधुओं, त्यागियों और निर्ग्रथ मुनियों
१. विस्तार के लिए आत्म दर्शन (सूरत) व जैनधर्म प्रकाश, पृ० ११७ |
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